SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पिंडेपणा ६१ के लिये ग्राह्य है ऐसा जानकर वह साधु दाता को कहे कि इस प्रकार का श्राहार पानी मेरे लिये कल्प्य नहीं है । [ ४8 + ५०] दूसरे श्रमण श्रथवा भिखारियों के लिये बनाये गये चारों प्रकार के भोजन के विपयमें यदि भ्रमण स्वतः श्रथवा दूसरों से सुनकर यह जाने कि यह दूसरों को पुण्य (दान) करने के निमित्त बनाया गया है तो ऐसा भोजनपान साधु पुरुषों के लिये कल्पनीय है ऐसा जानकर वह साधु उस दातार से कहे कि यह श्राहारपान मुझे ग्राह्य नहीं है । [ २१+१२] और गृहस्थों के लिये धनाये गये चारों प्रकार के भोजनों के विषयमें यदि भ्रमण स्वतः श्रथवा दूसरों से सुनकर यह जाने कि यह भोजन तो गृहस्थ याचकों के लिये बनाया गया है तो ऐसा भोजनपान साधु पुरुषों के लिये अकल्पनीय है ऐसा जानकर वह साधु उस दातार से कहे कि यह श्राहारपान मेरे लिये प्रकल्प्य ( श्रमा) है । [ ५३+५४ ] गृहस्थों द्वारा बनाये गये चारों प्रकार के श्राहारों के विषय में यदि श्रमण स्वतः अथवा दूसरों से सुनकर यह जाने कि यह भोजन अन्य धर्मी साधुयों के लिये बनाया गया है तो ऐसा भोजनपान भी साधु पुरुषों के लिये अकल्पनीय है ऐसा जानकर वह साधु उस दातार से कहे कि यह श्राहारपान मेरे लिये श्रग्राह्य है । टिप्पणी- जैन भिक्षु की वृत्ति यावन्मात्र जीवों के प्रति, भले ही वे अपने मित्र हों अथवा शत्रु हों सब के ऊपर समान होती है। उसके संपूर्ण जीवनमें दूसरों को किंचित्मात्र भी दुःख देने की भावना का कहीं भी और कभी भी लेश भी नहीं मिलता और इसी लिये उसको भिक्षा की गवेषणा में उनी सावधानी रखनी पडती है। यदि दाता गृहस्थ अन्य किसी के निमित्त
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy