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________________ मुख्य पर्णप हैं। मापात्मक और 'अमाषात्मक इस तरह शब्दादो तरहके होते हैं। भाषात्मक' भी दो मेद वाला १ अक्षरात्मक दुसरा अनक्षरात्मका अक्षरात्मक प्रकृत संस्कृत देशभापा मादि अनेक मेद हैं । अनसरात्मक मापा द्वीन्द्रियादिकोंमें और महन्त देवकी दिव्यध्वनिमें पाई जाती है। मापात्मकके समी भेद परके प्रयोगसे होते है अतः प्रायोगिक है। अभाषात्मक शब्द दो, प्रकार के होते हैं। एक प्रायोगिक दूनरे स्वाभाविक । मेवादिककी अनि स्वभाविक होती है और प्रायोगिक १ तत २ वितत ३ वन ४ शौपिर ये चार भेद हैं। विस्तृत चर्मक शब्दकोत्त, सितार, सारङ्गी आदिकी आवाजको वितत, घंश आदिकी ध्वनिको घन, और हवासे नो शंख आदिककी आवाज़ होती है उसे शौपिर कहते हैं। ___बन्ध दो प्रकारका है-एक स्वाभाविक दूभरा प्रायोगिक । सुक्ष्मवा मी दो तरहकी होती है- एक अनन्त दुमरी आपेक्षिक । स्थू बताके भी यही दो भेद संपझना । सल्यान (अ कृति) नियत स्वरूप, भनियन स्वरूपसे दो मे वाला है । भेद प्रथक भावको कहते हैं . और वह उस्करपूर्णादि भेरसे ६ प्रकारका है। तम अन्धकारको करते हैं । क्षाया आवरणको : कहते। जिसकी उष्ण प्रमा हो उसे आता कहते हैं और यह सूर्य या अग्निसे उत्पन्न होता है। जिसकी प्रमा उष्म नहीं होती है उसे उद्यत कहते हैं, यह चन्द्रसे उत्पन्न होती है। कहा भी है कि-" आदायो होदि उपह सहियपहा । , "उण्हूण वहाहु उज्जो ओ" मर्थात उष्णभा सहित सातप और उष्णप्रमा रहित उद्योत होता है, ये पुनरके पुलके इस प्रकारले मी , भेद किये मासक्ते हैं। मूमें पुद्गल दो प्रकारको है-एक स्कंध दूसरा अणु । निमें उठाना रखना आदि क्रियाओं का व्यवहार हो और स्थूल हो उसे स्कंध कहते। . दुशणुक आदिमें दिके वशसे रक्षण विना घटित होते हुए मी स्वता मानी गई है। जो सिर्फ एक प्रशवाचा हो उसे अणु कहते हैं.। यह अणु अस्मदादि प्रत्यक्षगोचर नहीं है। सर्वज्ञ भगवान ही इसे जानते हैं। प्रत्येक अणु छ कोण वाला है और भाकाशके एक प्रदेश में रहनेवाला है। इसमें अत्यन्त सूक्ष्मता होनेसे आदि चत मध्यकी व्यवस्था नहीं की जा सकती क्योंकि नो ही हमका आदि है वही मध्य और अन्त है जैसे कि किसी के एक पुत्र हो तो उससे पूछा जाय कि तुम्हारा सबसे बड़ा पुत्र कौन है तो वह उसे हो , पड़ा छोड़ और मध्यम पुत्र बतलावेगा । पृद्गर द्रव्यकी सिद्धि के लिए सर्वतः प्रपप यह उचित है कि . 'अणकी सिद्धि र ली जाय । अणु की सिद्धि हो जाने पर फिर बड़ासे. बड़ा मो.न्ध । सिद्ध किया मा. साता है । मणु यद्यपि प्रत्यक्षसे नहीं दिखाई देता तथापि
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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