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________________ प्रकार स्स्यते रसनमात्रं वा रसः, गन्ध्यते गन्मात्रं वा गन्धा, वय॑ते वर्णनमात्र वा वर्णः"की निरुक्तियां हैं। . प्रगल द्रव्य अनन्तगुण समुह स्वरूर है। यहां भी जीव द्रव्यकी तरहे उत्पाद व्यय श्रोन्यकी सिद्धि होनेसे द्रव्यका लक्षण अच्छी तरह घटित होता है। जीव तथा दल द्रव्यका अनादिकालसे आपसमें सम्बन्ध होता चला आ रहा है जैसे कि सुवर्ण जो कि खानसे तुरन्त निकाला जाता है, किदिमा कालिमा अंतरङ्ग मलसे लिप्त होता है और अग्नि आदिक संसर्गसे वह मैल दूर कर दिया जाता है उसी प्रकार जब इस जीवके पूर्वोपात्त कर्मोंकी निरा होने लगती है और संवरके बलसे आनेवाले कर्मों का आना रुक जाता है तब सम्पूर्ण कर्मका क्षय होमानेसे जीवकी मुक्ति होनाती है तो संसारी अवस्थामें जीवकी पूर्वपर्यायका विनाश होनेसे व्यय, नवीन पर्यायके उत्पन्न होने उत्पाद और जीवत्र सदा ही रहता है अतः भोव्य, ये तीनों ही गुण जीव द्रव्यमें मच्छी ताहसे घटित हो जाता है अतः द्रश्यका लक्षण जीव द्रव्यमें सिद्ध होता है। (शङ्काकार) जनःकि कोके अमाव होनेसे मुक्त श्रीवोंके शरीर रहता हो नहीं है तर फिर मुक्त जीवमें उत्पादादि कसे होंगे। ___ यह भी ठीक कहीं है क्योंकि मुक्त जीवोंके अगुरुन्धु गुणके द्वारा षट् धान पतित हानि वृद्धिसे उत्पादादि बन जायेंगे। संसारी जीवोंमें इस तरह मी उत्पाद व्यय प्रौव्य बन सक्ते हैं। प्रगलों में पूर्वपर्यायके विनाशसे और उत्तर पर्यायके प्रादुर्भावसे ऊगद व्यय बन जाते हैं। कभी मी पदलका सर्वथा विनाश नहीं होता अतः धौव्यता मी रहती ही है। . दूसरे जो पहलमें स्पर्श रस गन्ध वर्ण गुण पाये जाते हैं वे सर्वथा एकसे नहीं रहते, पर्श कमी कोमलता, कभी कठिनता, उष्णता, शीतता, रघुना, गुरुना, स्निग्धता, रूक्षता .इन आठ तरहसे परिणत होता रहता है। इसमें चिरपरा, 'डुआ, खट्टा, मीठा, कषायला ये. पांन भेद हैं तथा गन्धमें दुन्धि सुगन्ध इस तरह दो। वर्गमें नोल, पीत, श्वेन, श्याम, डाल ये पांच भेद हैं। इन वीस भेदोंके सिवाय विस्तारसे . उत्तर भेद संख्यात' असंख्यात अनन्त भी हो सकते हैं। (शंका) ना कि लोक असंख्यातप्रदेशी है तो उसमें अनन्त प्रदेशवाला पद्न स्कंध कसे भा सस्ता है। . __ • ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि एक एक आकाशके प्रदेशमें मी सुक्ष्म परिमाणसे परिणत अनन्तानन्त प्रदेशी स्कन्ध आ सकता है ऐमा आगममें कहा है। पुद्गल द्रव्यकी शब्द, बन्ध, सौम्य, स्थौल्य, संस्थान, मेद, तप, छाया, 'आतप, उयोत ये १०
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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