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________________ ..." सशे ये दो गुण मानते हैं और लक्षण उष्णस्पर्शमत्तेनऐसा मानते हैं । वायुमै रूप भी नहीं मानते सके समर्श ही गुण मानते है और पा रहित पशवान' वायु ऐपा. वायुका लक्षण कहते हैं । यह इनका माननी अविवारित ही है क्योंकि पृथ्वी आदि अलग पन्द्रकसे मिन्न पदार्थ नहीं है। हम देखते हैं कि पृथ्वी रूप जो काट हैवह जलकर अग्नि रूप. हो. जाता है तथा बारूद दियासलाई आदिमें अग्निका उष्ण स्पर्शदत् लक्षण नहीं भी हैं तथापि ये जलकर अग्नि रूप ही हो जाते हैं और अग्नि चल चुकने के बादमें फिर पृथ्वी रूप हो जाती है। स्वाति नामक नक्षत्र विशेषमें वर्षा होते समय यदि जल विन्दु सीपमें पड़ जाय तो वही पार्थिव रूप मोती बन जाती है। जिस आहार जातको हम ग्रहण करते हैं वहीं : पित्तरूप (उदाग्नि) परिणत हो जाती हैं. अतः पृथ्वी आदि स्वतंत्र पदार्थ नहीं माना: ...सकते तथा जो अपने पृथ्वीमें स्पादि चारों ही, जलमें गन्ध विना तीन, अनिमें रूपस्पर्श और वायुमें केवल स्पर्श माना था सो. यह मी तुम्हारा मानना न्याय नहीं कहा जा सकता क्योंकि जिनमें परम्पर, अविनामाव सम्बन्ध है वे एक दूसरे के विना कमी नहीं रह सक्ते, इतका . अविनापराव किस तरहसे हैं और पृथ्वी आदिका जीव पद्गादि किस किसमें अन्तभाव होता है यह हम पदायाँको व्यवस्था नहीं निर्णय की है। वहाँ लिखे आये हैं अतः यहाँ पुनरुक्ति, लेख वृद्धि, समयाभाव, और निरर्थक होनेसे नहीं लिखते हैं । बाशा है कि इस प्रकरणके जिज्ञासु जहाँ यह विषय लिखा गया है उन पत्रों में देखनेका कष्ट उठावेंगे। परमाणुकी तरह स्कन्धौ पूर्व अपर अवस्था विनाश उत्पाद होने द्रव्यंका लक्षण अच्छी तरह घटित हो जाता है । प्रौव्यता इनके सर्वथा नाश न होने सदा बनी ही रहती है। पृथ्वी आदि पदलत्यकी अपेक्षा आदि रहित हैं । उत्पत्तिको अपेक्षा तो अनादि नहीं कह सक्ते क्योंकि उत्पत्तिकाला साद ही होती, इस तरह पुल द्रव्यको मावश्यकता : • और सिद्धिका विषय समाप्त किया । . ......... . सारांश-प्रदल द्रव्य यदि नहीं होगी तो संसारकी प्राणभूत पदार्थ व्यवस्था नहीं बन सक्ते अतः पद्धल द्रव्पकी आवश्यकता है। परमाणुके सिद्ध होनेसे पद्न द्रव्यकी .. सिद्धि है ही। अतः जीवद्रव्यवत पद द्रव्यको भी मानना चाहिये। .. . .. ....... . . ... . Sh.." - - . धर्म अधर्मका निरूपण तथा आवश्यक्ता । :: उक्त कयनमें पुद्गलकी अच्छी तरहसे सिद्धि की गई है। यहाँ धर्म अधर्म के विषय में, - लिखते हैं. प्रथम धर्मद्रव्यका लक्षण श्री कुन्दकुंदाचार्यने इस प्रकार किया है धमाथि कायमरस अवण्णगंध असहमण्कास। लोगोगाद पुद विदुलमसंखादि य पदेस ॥ १ ॥ H , ... '.. .. : ".. .. "
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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