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________________ ४१४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की ५२५२॥ जैन विद्या के क्षेत्र मे शब्द और वि५य-कोश ही अधिक प्रकाश मे आय है, ग्रन्थको और ग्रन्यकार-कोश नही ही ह । विषय-कोशो के अन्तर्गत लेण्या-कोश और क्रियाफो। उल्लेखनीय है । इनके द्वारा एक वैज्ञानिक परम्परा का सूत्रपात हुआ है, जिसे किसी भी स्थिति में अक्षुण्ण- अविच्छिन्न रखना चाहिए । अद्यतन जो भी को। निर्मित हुए है, वे लाक्षणिक यानी पारिभापिक ही है, किन्तु इस लीक से हटकर किसी अन्य परम्परा का विकास हम नही कर पाये हैं । अगरेजी, और अब हिन्दी मे भी, ग्रन्थ एव ग्रन्थकार-कोशो की निर्मिति की ओर कोशकारो का ध्यान गया है। अगरेजी मे शेक्सपीअर इत्यादि पर पृथक् कोश है, कई महत्वपूर्ण ग्रन्यो पर भी अलग से को प्रकाशित हुए है । हिन्दी मे तुलमी, सूरदास इत्यादि पर अलग से स्वतन्त्र कोण सपादित हुए है । प्रसाद-कोश, सूरजज-कोश इसी तरह के कोश है। जनवाइमय के क्षेत्र में भी अब इस तरह के ग्रन्यकोश और ग्रन्यकारकोश बनाये जाने चाहिये । ----कुन्दकुन्दाचार्य पर स्वतन्त्र को बनाया जा सकता है, इसी प्रकार विभिन्न अगसूत्रो पर अलग-अलग कोश-भकलनाए सभव है। इससे अध्येताओ और अनुसंधानकर्ताओ को अध्ययन की सुविधाए उपलब्ध हो सकेगी। १५ इस दृष्टि से ऐसे ग्रन्थो की एक वृहत्तालिका बनायी जाए, जो बडे है, महत्व के है, और जिनका स्वतन्त्र अध्ययन आवश्यक है। इनमे धवला, महाबवला, समयसार, मोलशास्त्र, महापुराण इत्यादि को सम्मिलित किया जा सकता है। इनके आविर्भाव से ग्रन्यो के अन्तर्मुख अध्ययन के द्वार खुल जाएगे और कोशरचना के क्षेत्र मे कुछ नये क्षितिज उद्घाटित हो सकेगे। १६ ग्रन्यकार-कोगो की दृष्टि मे कुछ ऐसे ग्रन्थकारो, जिनमे विभिन्न आचार्य तो होगे ही, को चुना जाए जिनका जैन विद्या के क्षेत्र मे विपुल प्रदेय है । प्राचीन मध्य और आधुनिक युगो से चुने गये इन ग्रन्यकारो की शव्दमपदाओ के स्वतन्त्र सकलन, अध्ययन और सपादन होने चाहिये, जिनमे शब्द-विवृत्तियां तो हो ही सबन्धित पात्रो, स्यानो, प्रवृत्तियो, पारिभाषिक शब्दो इत्यादि की भी जानकारियां हो । जहाँ-जहाँ जैन चेयर स्थापित हुई हैं, वहाँ-वहाँ इस-इस तरह की योजनाओ को हाथ में लिया जाना चाहिए, ग्रन्यकोशो और ग्रन्यकारकोशो के माध्यम से तुलनात्मक अध्ययन के नये क्षितिज उजागर होंगे और अनुसंधान को प्रोत्साहन मिलेगा। १७ इनके अलावा कुछ तुलनात्मक कोश भी बनाये जाने चाहिये । उदाहरणत श्वेताम्बर और दिगम्बर मप्रदायो के साम्य और अ-साम्य पर आधारित कुछ વનૂભુર્વ ર વૈજ્ઞાનિ જોશ વનને વાહિયે. ડસને નડ્યાં મોર વોનો सप्रदायो के मध्य एक सेतु स्थापित हो सकेगा, वही दूसरी ओर विशिष्ट अध्ययनो के लिए नयी मभावना भी जन्म ले सकेगी । ऐसे को विशुद्ध वस्तुनिष्ठा के साथ तैयार होने चाहिये, जिनमे अति रजन, अनुरजन, या तथ्यो को दावने की हीन
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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