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________________ १९वी २०वी शताब्दी के जन कोशकार और उनके कोशो का मूल्याकन ४१३ है । इस तरह इस्टीट्यूट का यह प्रदेय "लेश्या-कोश" की भाँति ही एक बहुमूल्य प्रदेय है। १३. जैनलक्षणावली : अब तक इसके दो भाग प्रकाश मे आये हैं, तीसरा प्रस्तावित अथवा मुद्राधीन है। 'जैन लक्षणावली" एक पारिभाषिक शब्दकोश है । इसके प्रथम भाग मे अ औ और द्वितीय मे क+वशील पौष्णकाल तक सकलित और व्याख्यायित हैं। प्रथम भाग के आरम मे प्राक्कथन अगरेजी , दो शब्द, प्रस्तावना, प्राकृत शब्दो की विकृति वा उनका रूपान्तर इत्यादि हैं, लक्षणावली मे कुल ७३० पृष्ठ है, जिनमे से प्रथम भाग मे १---- ३१२ और द्वितीय मे ३१६---३७० है । प्रस्तावना मे विद्वान् कोशकार ने "जैन लक्षणावली" की उपादेयता, उपयोगिता, उसमे स्वीकृत पद्धति, उपयुक्त ग्रन्यो के परिचय, लक्षण वैशिष्ट्य के अन्तर्गत विभिन्न पारिभाषिक शब्दो की बहुविध भगिमाओ पर विचार इत्यादि है । अन्थान्त मे उपयुक्त ग्रन्थो की एक सागोपाग विवरणयुक्त अनुक्रमणिका है, जिसमे ३५१ ग्रन्थ विवृत है । इसके तुरन्त बाद ग्रन्यकारानुक्रमणिका है, जिसमे १३७ ग्रन्यकारो के विवरण है, तदनन्तर कालानुक्रम से ग्रन्थकारानुक्रमणिका दी गयी है। इस तरह इन तीनो अनुक्रमणिकाओ मे महत्व की सामग्री सयोजित है । सपादकीय मे "जैनलक्षणावली" की परिकल्पना पर प्रकाश डाला गया है। उक्त कोश मे दिगम्बर एव श्वेताम्बर संप्रदायो के लगभग ४०० प्राकृत एवं संस्कृत ग्रन्यो से पारिभापिक शब्दो की प्रामाणिक सकलना की गयी है। "लक्षणावली", इस तरह, न केवल जैन विद्या परन् सपूर्ण प्राच्य जगत् का एक महत्त्वपूर्ण सदर्भ ग्रन्थ बन पडा है । इसकी परिकल्पना १९३६ ई० मे की गई थी, किन्तु आकार १९७२ ई० मे दिया जा सका। कोशकार ने जिस अन्त प्रेरणा से कार्य किया है, वह है, कि "अब तक श्वेताम्बर ग्रन्थो के आधार अर्द्धमागधी और प्राकृत शब्दकोश थे, किन्तु ऐसा कोई कोश नही था, जिसमे दोनो सप्रदायो के प्रमुख सामग्री-स्रोतो का उपयोग करते हुए किसी कोश की रचना की गई हो, प्रस्तुत कोश मे दोनो साप्रदायिक स्रोतो का उपयोग किया गया है । प्रस्तुत कोश की प्रमुख विशेषता यह है कि न तो यह विशालकाय है और न ही इसमे अधिक जटिलताए है, हिन्दी-अनुवाद भी किसी एक चुने हुए अश का, जो अधिक असदिग्ध और सार्थक दिखायी दिया है, किया गया है। कोशकार ने अपने पूर्ववर्ती कोशकारो के अनुभवो का अच्छा उपयोग किया है, यही कारण है कि यह कोश अन्य कोशो की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण, सुबोध और उपयोगी है। १४ उक्त अध्ययन के वाद, जिसमे प्रमुख जैन कोश और कोशकार मूल्याकित हैं, हम नीचे उन सभावनाओ पर विचार कर हे है, जिन्हे मूर्त रूप दिया जा सकता है। कोशो को हम मुख्यत ४ कोटियो मे विभाजित कर सकते है १- शब्दकोश , २ विषय-कोश, ३ ग्रन्थ-कोश, ४ ग्रन्थकार-कोश । अभी
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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