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________________ सहान पाकृत त का अपभश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३६३ प्राकृत के गदकोश यह निश्चित है कि सात की अपेक्षा प्राकृत के शब्दकोशो की रचना बहुत बाद में हुई। ऐमा होना स्वाभाविक भी था। क्योकि लोक मापा के लिए व्याकरण, फो। की आवश्यकता नहीं पड़नी । प्राकृत के जिन प्राचीनतम शब्दसंग्रहकारो के उल्लेख मिलते हैं, उनमें अभिमानचिल, गोपान, देवराज, द्रोण, धनपाल और हेमचन्द्र के नाम स्मरणीय है । इनके अतिरिक्त कुछ दक्षिण भापाओ के, विशे५ कर कन्न: के कोशकारों ने प्राकृत-अपभ्रश शब्दो का उल्लेख किया है। पाइअलछीनाममाला उपलब्ध प्राहातकोशो मे महाकवि धनपाल कृत 'पाइअलच्छीनाममाला' प्रथम कोश कहा जा सकता है । यह दसवी शताब्दी की रचना है। वि० स०१०२६ में धारानगरी के अन्तर्गत भानखेड ग्राम मे अपनी छोटी बहन सुन्दरी के लिए कवि ने इस शब्दकोश की रचना की थी। यह कोश २७६ गाथाओ मे निबद्ध है। विद्याथियो के लिए यह अत्यन्त उपयोगी कोश है। इसमे ६६८ शब्दो के पर्यायवाची शब्दो का सकलन लक्षित होता है। आचार्य हेमचन्द्र ने "अभिधानचिन्तामणि" की स्वोपज्ञ विवृति मे "न्युत्पत्तिर्धनपालत" का सकेत कर इनकी प्रशना की है। इसका एक कारण यह भी है कि देशी शब्दो का अभिधान करने वाला एक मात्र यही अन्य उनके सम्मुख था । स्वय महाकवि धनपाल ने देशी शब्दो के सकलन का उललेख किया है । वास्तव मे परम्परा से प्राप्त जो भी शब्द प्रचलित थे (चाहे वे सस्कृत-प्रवाह के हो अथवा लोक-बोलियो के) उनका संग्रह मान मरलता से प्रस्तुत किया गया है । अतएव आज भी हमारे बोलचाल के बहुतमे शब्द इस कोश मे ज्यो-के-त्यो मिलते हैं । उदाहरण के लिए . कुपल (कोपल), ओली (अवलि, पक्ति), मुक्खा (मूर्ख), कच्छा, तुद (तोद), दहिज (दही), भडुक्का (मेढक), विरालोलो (विलाडी, दिल्ली), खाईया (खाई), लपा (लाच, घूस), छल्ली (छाल), गुच्छा (गुच्छा), मामी (मामी), असमजस, गुद (गोद), उल्ल, आल (वाला अर्थ मे प्रत्यय) इत्यादि । इसी प्रकार से सस्कृत तथा अन्य भापाओ से मिश्रित शब्द भी द्रष्टव्य हैं । ६५ यह वास्तविक तथ्य है कि हजारो वर्षों तक भारतीय जनता को इस बात की कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ी कि प्राकृत का भी शब्दकोश होना चाहिए। यद्यपि सस्कृत के शब्दकोशो मे कई स्रोतो से देशज शब्दो का समावेश लक्षित होता है, किन्तु उनसे प्राकृत काव्य को समझने में विशेष सहायता नहीं मिलती। हम यह भी नही कह सकते कि संस्कृत के कवि अपने साहित्य तक सीमित रहे या उन्होंने प्राकृत की उपेक्षा की। किन्तु वास्तविक यह है कि चाहे सस्कृत के नाटक
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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