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________________ आचार्य श्री कालूगणी व्यक्तित्व एवं कृतित्व ११ डालगणी के चयन-कौशल की सर्वत्र प्रशसा होने लगी । कालू जैसे अनासक्त और कर्मक्षम आचार्य को पाकर तेरापथ धर्मसंघ धन्य हो गया । भाद्रशुक्ला पूर्णिमा को सकल कला से समन्वित उस पूर्णचन्द्र का आचार्यपदाभिषेक हुआ । तेरापथ का भाग्यचन्द्र अपनी अमल-धवल चादनी से जन-जन की मनोभूमि को उद्योतित करने लगा | सब लोग नए दायित्व के अभिनव सृजन की प्रतीक्षा करने लगे । • अध्ययन का पराक्रम हमारे धर्मसंघ मे संस्कृत विद्या के अध्ययन का श्रीगणेश जयाचार्य ने किया था । उन्होने अपने उत्तराधिकारी मघवा को संस्कृत का अध्ययन करवाया । वे कहा करते थे हमारे यहा मधजी पंडित हैं । मघवागणी मुनि कालू को संस्कृत पढाना चाहते थे । वे मुनि कालू को कहते संस्कृत हमारे आगमो की कुजी है । मागम प्राकृत भाषा में है । उनकी टीकाए संस्कृत मे लिखी गई हैं। संस्कृत जानने वाला टीकाओ के माध्यम से आगमो के रहस्य को समझ सकता है । इसलिए हमे संस्कृत अवश्य पढ़नी चाहिए । मघवागणी ने मुनि कालू के हृदय में संस्कृत पढने की भावना का बीज बो दिया था, पर वे उसे पर्याप्त समय तक सिञ्चन नही दे पाए । फलतः वह बीज अकुरित नही हुआ । डालगणी के शासनकाल मे फिर मुनि कालू संस्कृत पढने लगे । इस अध्ययन काल मे उन्हे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पडा । उस समय हमारे सघ मे संस्कृत पढाने वाला कोई मुनि नही था । ब्राह्मण पंडित जैन मुनि को संस्कृत पढाने मे सकुचाते थे । सबसे बडी समस्या थी अर्थ देकर विद्या न पढना । इन सव कठिनाइयो के होते हुए भी मुनि कालू ने अपना अध्ययन चालू रखा । उनका संस्कृत अध्ययन परिपक्व होने लगा । 1 मुनि कालू आचार्य बने, तब उनकी अवस्था ३३ वर्ष की थी । उस अवस्था मे भी वे विद्यार्थी बने हुए थे । ३६ वर्ष की अवस्था (सं० १९७० ) मे छापर प्रवास हुआ। उस समय उन्होने फिर संस्कृत का अध्ययन शुरू किया। उन्होने अपने अव्यवसाय से यह प्रमाणित कर दिया कि ४० वर्ष के आसपास का आदमी भी विद्यार्थी हो सकता है और ७० वर्ष का भी हो सकता है । आचार्य पद का दायित्व उनके कन्धो पर आ गया । फिर भी उनके अध्ययन को क्रम नही टूटा | वे पहले केवल व्यक्ति थे अपने आपमे सिमटे हुए । अब उनकी सीमाए विस्तृत हो गई, उनका कार्य क्षेत्र विशाल हो गया । समूचे सघ के हितो का यह ध्यान रखना उनका कर्तव्य हो गया । उन्होने अपने आचरण से यह प्रमाणित कर दिया कि व्यक्ति दायित्वपूर्ण पद पर रहते हुए भी अध्ययन के लिए समय निकाल सकता है ।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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