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________________ १० : संस्कृत - प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा जीवनचर्या वैसी ही चल रही थी, जैसी युवाचार्य पद पर नियुक्त करने से पहले थी । डालगणी वडे अद्भुत व्यक्ति थे । उन्होने मुनि कालू को अब भी कोई विशिष्टता प्रदान नही की। मुनि कालू की अपनी यही विशिष्टता थी कि वे प्रदत्त विशिष्टता से कभी विशिष्ट नही बने, जो वने वह अपनी ही आन्तरिक विशिष्टता से बने | आचार्य पद का दायित्व संवत् १९६६ भाद्रपद के शुक्ल पक्ष मे डालगणी का स्वास्थ्य अधिक गिर गया । अब उनके ठीक होने की संभावना क्षीण हो गई। उनका सकेत पाकर मुनि कालू ने मारावना सुनाई। वह समाधिपूर्ण मृत्यु का एक अनूठा सवल है । जैनसाधना मे समाचिपूर्ण जीवन का जितना महत्त्व है, उससे कही अधिक महत्त्व समाधिपूर्ण मृत्यु का है । आराधना श्रीमज्जयाचार्य का अनुपम अनुदान है। उससे समाधिपूर्ण मृत्यु का वरण करने वाला हर व्यक्ति लाभान्वित हो सकता है, और होता है | आरावना सुनते-सुनते डालगणी ने सबके साथ 'समत- खामणा' किए । भाद्रपद शुक्ला वारस के दिन डालगणी स्वर्गवासी हो गए । मुनि मगनलालजी ने कहा आप पद पर आसीन होकर हमे सनाय करें । मुनि कालू ने सहज ही यह स्वीकार नही किया । उन्होंने कहा- पहले पत्र पढो, फिर बात करो । मुनिश्रेष्ठ मगनलालजी ने कहा पत्र पढ लिया । अव कोनसा पत्र पढना वाकी है । सब सन्तो ने आग्रहपूर्वक मुनि कालू को पद पर आसीन कर दिया । वे उदासीन भाव से पद पर बैठे रहे । वे चाहते थे, यह सारा कार्य पत्र-वाचन के बाद मे हो, पर साधुओ के आग्रह ने उन्हें पद पर बैठने के लिए वाघ्य कर दिया । भाद्रशुक्ला त्रयोदशी को मध्याह्न के समय तीर्थ-चतुष्टय को विशाल परिषद् जुडी | उसमे मुनि मगनलालजी ने डालगणी द्वारा लिखित आचार्य-पद का नियुक्ति पत्र पढा । वह इस प्रकार है 'भिक्षु पाट भारीमाल | भारीमाल पाट रायचंद | रायचंद पाट जीतमल । जीतमल पाट मघराज | मधराज पाट माणकलाल | माणकलाल पाट डालचंद । डालचंद पाट कालू | विशेष आज्ञा प्रमाणे चाल्या फायदो होसी । वि० स०१६६६ प्रथम श्रावण प्रतिपदा ' इस पत्न-वचन द्वारा साधुओ की भावना, कार्य और व्यवहार की पुष्टि हो गई। यह अज्ञात नहीं था, किन्तु जो ज्ञात था, वह सवादी प्रमाण से प्रमाणित हो सुज्ञात हो गया । अव मुनि कालू तेरापथ के भाग्य विधाता हो गए । अष्टम आचार्य के जयघोष से वायुमंडल गूज उठा | समूचा सघ हर्ष-पुलकित हो गया ।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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