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________________ १२ मम्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ____ मुनि मगनलालजी स्वामी जनता के बीच रहते और आचार्यवर एकान्त में वैठ अध्ययन करते । उस समय कण्ठस्थ करने की पद्धति चाल थी। वडे-बडे ग्रन्थ कण्ठस्थ कराए जाते थे। आचार्यवर ने भी सिद्धान्तचन्द्रिका का पाठ कण्ठस्थ कर लिया । प्रौढ अवस्था और सघ का दायित्व दोनो उनके दृढ अव्यवसाय मे सहायक बने और उनका स्वप्न साकार होता गया। विकास के स्वप्न कालूगणी के मन में विकास के स्वप्न उठते रहते थे। उनका स्वभाव निस्तरंग समुद्र की भाति शान्त था । हलचल और कोलाहल से वे दू· रहते थे। पर विकास की तरंगे उन्हे तर गित करती रहती थी। स्वप्न उसी व्यक्त भावना के प्रतीक हो सकते हैं । हो सकता है कि विकास की सूचना देने के लिए वे आत हो । फाल्गणी ने एक स्वप्न देखा उनकी आखो के सामने एक सूखा वृक्ष है । वह देखते-देखते लहलहा उठा है । दूसरे दर्शन मे वह फलो से लदा हुआ है। इस स्वप्न की व्याख्या उन्होने की अव मेरे सघ मे सस्कृत विद्या का सूखा वृक्ष पत्रो, पुष्पो और फूलो के भार से झुका हुआ होगा । अव हमारा भविष्य विद्या के त९ को तशाखी बनायेगा। पूज्य गुरुदेव ने एक स्वप्न देखा गाय के मकेद बछडे और वछिया चारो तरफ फैल रहे है । इस स्वप्न का अर्थ उन्होने लगाया श्वेत वस्त्रधारी अनेक तरुण साधु-साध्विया होगी । सचमुच ऐसा ही हुआ। कालूगणी के समय मे तरुण साधु-साध्वियो की वडी सख्या मे दीक्षा हुई। सघ वहुत शक्तिशाली हो गया। कालूगणी जागृत अवस्या मे भी बहुत स्वप्न लिया करते थे। उन्होने अपने विकास को ही सीमा नहीं माना । अपने शिष्यो को भी विकास के पथ पर अग्रसर करना शुरू किया। अनेक साधु सस्कृत पढने लगे। आचार्यवर स्वयं उन्हे पढाते थे । सारस्वत और सिद्धान्त चन्द्रिका का प्रवल घोष सुनाई देने लगा। ___आचार्यवर ने अनुभव किया सिद्धान्त चन्द्रिका का पूर्वाद्ध अपर्याप्त है, सारस्वत का उत्तरार्द्ध अपर्याप्त है। वे अपने शिष्यों को सारस्वत का पूर्वार्द्ध और सिद्धान्त चन्द्रिका का उत्तराद्ध पढाते थे। कुछ वर्षों बाद उनके मन मे इसका विकल्प खोजने की प्रेरणा जागी । प्रयत्न शुरू हुआ। मुनि मगनलालजी बहुत दूरदर्शी, सूक्ष्म-बुद्धि के धनी थे। वे यतियो के उपाश्रयो मे जाते, उनके पुस्तकभंडार देखते और जो हस्तलिखित ग्रथ प्राप्त होते, उन्हे ले आते। उन्होने हस्तलिखित ग्रथो का महत्त्वपूर्ण सग्रह किया। उनमे अनेक दुर्लभ ग्रथ हैं । लिपिसौन्दर्य की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। श्रीचन्दजी गणेशदासजी गया, विरधीचन्दजी मदनचन्दजी गोठी, वालचन्दजी मालचन्दजी सेठिया सरदारबाहर, ईमरचन्दजी चोपडा गगा शह', तोलारामजी सुराना चूरू, मालचन्दजी
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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