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________________ प्राकृत एवं अपभ्रंश का आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ पर प्रभाव २६१ का अन्तर कालगत है अथवा शैलीगत | कालगत अन्तर मानने वालो का तर्क है कि प्राकृत के वैयाकरणो ने महाराष्ट्री का अनुशासन आठवी शताब्दी के पश्चात् निबद्ध किया है । डा० मनमोहन घोप ने स्थापित किया कि प्राचीन शौरसेनी महाराष्ट्री की जननी है। डा० सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या ने भी शौरसेनी प्राकृत तथा शौरसेनी अपभ्रंश के बीच की एक अवस्था को महाराष्ट्री प्राकृत माना है ।" इनका शैलीगत अन्तर मानने वालो मे स्टेन कोनो प्रमुख है, जिन्होने यह नियम प्रतिपादित किया कि पद्य की महाराष्ट्री एव गद्य की शौरसेनी होती है । शौरसेनी मे द्विस्वरान्तर्गत व्यजनो का घोषीकरण अर्थात् व्यजन वर्ग के प्रथम व्यजन के स्थान पर उसी वर्ग के तृतीय व्यजन की स्थिति पायी जाती है जबकि महाराष्ट्री मे द्विस्वरान्तर्गत व्यजनो का लोप होकर स्वर बाहुल्य स्थिति हो जाती है । डा. मनमोहन घोष ने विकास एव शैली मे तारतम्य स्थापित कर प्रतिपादित किया कि पहले शौरसेनी प्राकृत थी जिसमे गद्य रचना हुई। संस्कृत के नाटककार जब गद्य मे पानी से वार्तालाप कराते थे तो शौरसेनी प्राकृत का उपयोग करते थे क्योकि वह तत्कालीन जनता के भाषिक रूपो के निकट थी। बाद मे उसका विकास महाराष्ट्री प्राकृत के रूप में हुआ । जब कवियो ने पद्यरचना मे महाराष्ट्री प्राकृत का उपयोग किया तो उन्होने मृदुता के लिए व्यजनो का लोप कर भाषा को स्वर बाहुल्यता प्रदान कर दी । प्राकृतो की भाति अपभ्रशो की भी स्थिति है । अपभ्रंश शब्द के भापागत प्रयोग का जो प्राचीनतम उल्लेख प्राप्त है उसमे तो अपभ्रंश किसी भाषा के लिए प्रयुक्त न होकर संस्कृत के विकृत रूपो के लिए प्रयुक्त मिलता है । नाट्यशास्त्रकार के समय प्राकृतो के युग मे अपभ्रंश एक बोली थी । कालान्तर मे इस बोली रूप अपभ्रंश पर आधारित मानक अपभ्रश का उत्तरोत्तर विकास हुआ जिसका स्वरूप स्थिर हो गया । अपनी इसी स्थिति के कारण हिमालय से सिन्धु तक इसका रूप उकार बहुल । था । प्राकृतो के साहित्यिक युग के पश्चात् उकार बहुला अपभ्रंश साहित्यिक रचना का माध्यम बनी । आठवी नौवी शताब्दी तक राजशेखर के समय तक यही अपभ्रंश सम्पर्क भाषा के रूप मे पजाव से गुजरात तक व्यवहृत होती थी । "समस्त मरुएव टक्क, और भादानक से अपभ्रंश का प्रयोग होता है "" तया सौराष्ट्र एव त्रिवणादि देशो के लोग सस्कृत को भी अपभ्रंश के मिश्रण सहित पढते है' जैसी उक्तिया इसकी परिचायक हैं । आगे चलकर इसी मानक साहित्यिक अपभ्रंश रूप के विविध क्षेत्रो मे उच्चारण भेद हो गए। नौवी शताब्दी में ही रुद्रट ने स्वीकार किया कि अपभ्रंश के देशभेद से बहुत से भेद है ।" अपभ्रंश भाषा के उपनागर, आभीर एव साम्य भेदो को 'भूरिभेद' कहकर
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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