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________________ २६२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा अर्यात् भूमि की भिन्नता के कारण एक ही भापा के स्वाभाविक भेद बतलाकर रुद्रट ने एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर सकेत किया है। ईसा की १२वी शताब्दी तक अपभ्र श लोकभाषा न रहकर साहित्य मे प्रयुक्त होने वाली रूढ भाषा बन चुकी थी। वस्तुत ११वी शताब्दी से तो आधुनिक भारतीय आर्य भापाओ के प्राचीन भापा रूपो मे लिखित साहित्यिक ग्रन्थ मिलने आरम्भ हो जाते है। इसका अर्थ यह हुआ कि बोलचाल की भाषा के रूप मे तो अपभ्र श के विविध रू५ ६०० ई० या अधिक से अधिक १००० ई० तक ही व्यवहृत होते होगे । अपभ्र श के इन विविध रूपो की सामग्री, जिनसे विविध आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ का विकास हुआ, उपलब्ध नहीं है। अपभ्र श के देशगत भेद उसी प्रकार अथवा उससे भी अधिक विद्यमान रहे होगे जिस प्रकार आज आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ के भेद विद्यमान है। विष्णुधर्मोत्तरकार के अनुसार तो स्थान भेद के आधार पर अपभ्र श के भेदो का अन्त ही नही है ।१९ प्राकृत सर्वस्व से भी पता चलता है कि अपभ्र श के २७ भेद स्वीकृत थे।१२ ____ 'प्राकृतानुशासन' मे भी नागर, वाचड, उपनागर, पचाल, वैदर्भी, लाटी, ओड़ी, कैकेयी, गोडी, टक्क, वर्वर, कुन्तल, पाड्य तथा सिंहल आदि अपभ्र शो का उल्लेख है। अपभ्र श के विविध रूप बोले जाते थे इसमे कोई सन्देह नही है किन्तु इन भिन्न-भिन्न रूपो मे साहित्य उपलब्ध न होने के कारण इनका परिचय प्राप्त नही है । अपभ्र श साहित्य का विकास मालवा, राजस्थान तथा गुजरात मे ही हुआ। इन्ही प्रदेशो की अपभ्र शो के आधार पर विकसित साहित्यिक अपभ्र श मे साहित्यिक रचना हुई। इसी साहित्यिक अपभ्र श का रूप आज सुरक्षित है जिसमे कालान्तर मे प्रत्येक प्रदेश के साहित्यकारो ने साहित्य रचना की। इस प्रकार साहित्य के रूप मे जिस मानक अपभ्र श का प्रयोग हुआ है उसमे प्राकृतो की भाति यत्किचित स्थानीय भेदो की झलक तो है किन्तु वस्तुत वे एक ही साहित्यिक अपभ्र श भाषा के रूप हैं। ३ अपभ्र श के विविध रूपो से नि मृत होते समय आधुनिक भारतीय आर्य भापाओ का जो रूप वोला जाता होगा उसकी भी हमे जानकारी नही है। इस प्रकार के विवरण तो उपलब्ध है कि किस अपभ्र श रूप से किस आधुनिक भारतीय आर्य भाषा का विकास हुआ है। इस सम्बन्ध मे पाइअ-सहमहण्णवो' का विवरण उल्लेखनीय है जिसमें कहा गया है कि "महाराष्ट्री अपभ्र श से मराठी और कोकणी भाषा, मागधी अपभ्र श की पूर्वी शाखा से बगला, उडिया और असमिया भापा, मागधी अपभ्रश की विहारी शाखा से मैथिली, मगही और भोजपुरिया, अर्द्धमागधी अपभ्र श से पूर्वीय हिन्दी
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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