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________________ २६० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा इच्छानुसार किसी भी देशभापा का, क्योकि नाटक मे नाना देशो मे उत्पन्न हुए काव्य का प्रसग आता है। उन्होंने देश भापाओ का वर्णन करते हुए उनकी संख्या सात बतलायी है (१) मागवी, (२) आवती, (३) प्राच्या, (४) शौरसेनी, (५) अर्धमागधी, (६) वालीका, (७) दाक्षिणात्य।।। इस विवेचन के आधार पर यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि भरत मुनि सात भापाओ की वात कर रहे है किन्तु यदि हम सदर्भ को ध्यान में रखकर विवेचना करे तो पाते हैं कि भरत मुनि यह विधान कर रहे है कि नाटककार किसी भी नाटक में इच्छानुसार देश प्रसग के अनुरूप किसी भी देश भाषा का प्रयोग कर सकता है। कोई भी नाटककार अपने नाटक मे पानानुकूल भापा नीति का समर्थक होते हुए भी विविध भापाओ का प्रयोग नहीं करता, नही कर सकता। इसका कारण यह है कि उसे ऐसी भाषा का प्रयोग करना पड़ता है जिसका अभिनेता ठीक प्रकार उच्चारण कर सके और उस नाटक का दर्शक समाज भिन्न-भिन्न पात्रो के भिन्न-भिन्न सम्वादो को समझ सके। यदि सम्प्रेषणीयता ही नही होगी तो रस' कैसे उत्पन्न होगा ? यही कारण है कि समाज के विविध स्तरा एव विभिन्न क्षेत्रो के पात्रो के स्वाभाविक चरित्र-चित्रण की दृष्टि से पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग करते समय एक ही भाषा के विविध रूपो तया उस भाषा के अन्य भापियो के ७.पारण-लहज़ो के द्वारा प्रभाव उत्पन्न किया जाता है। कोई हिन्दी नाटककार अपने हिन्दी नाटक मे वगला भापी पान से गला भापा मे नही बुलवाता अपितु उसकी हिन्दी को वगला उच्चारण से रजित कर देता है। इस दृष्टि से सात देश भाषायें अलग-अलग भाषाय नहीं हैं, किसी एक ही साहित्यिक प्राकृत के भिन्न देशो की भाषाओ से रजित रूप है। यदि ये देश भाषाये अलग-अलग भापाये ही होती तो मरत मुनि यह विधान न करते कि अन्त - पुरनिवासियो के लिए मागधी, चेट, राजपुत्र एव सेठी के लिए अर्ध मागधी, विदूपकादिको के लिये प्राच्या, नायिका और सखियो के लिए शौरसेनी मिश्रित आवती, यो हा, नागरिको और जुआडियो के लिए दाक्षिणात्या और उदीच्य, खमो, शबर, शको तथा उन्ही के समान स्वभाव वालो के लिए उनकी देशी भाषा पालीका उपयुक्त है। जहा तक इन तयाकथित भिन्न प्राकृतो के प्रयोग का प्रश्न है शौरसेनी प्राकृत का उपयोग म कृत नाटको मे गध की भाषा के रूप में हुआ है। भागवी प्राकृत मे कोई स्वतन्त्र रचना नही मिलती। संस्कृत नाटककार निम्न श्रेणी के पानी मे मागधी का प्रयोग कराते है । अर्थ मागधी में मागधी एव शौरसेनी दोनो की प्रवृत्तिया पर्याप्त मात्रा मे मिलती हैं। महाराष्ट्री प्राकृत को आदर्श प्राकृत कहा गया है। दण्डी ने यद्यपि महाराष्ट्री को महाराष्ट्र आश्रित भाषा कहा है तथापि मत्य यह है कि यह क्षेत्र विशेष की प्राकृत न होकर शौरसेनी प्राकृत का परवर्ती विकमित ५५ है। यह जरूर विवादास्पद है कि शौरसेनी एव महाराष्ट्री
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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