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________________ आप प्राकृत स्वरूप एव विश्लेपण २२६ आप या सामयिक प्रयोग के प्रतिपादन का हेतु काल का अन्तराल है | आगम सूत्रों के कुछ प्रयोग व्याकरणसिद्ध नही है, इस धारणा के पीछे दो हेतु थे १ प्राकृत व्याकरणकारो के समय जो व्याकरण उपलब्ध थे या उन्हे जो नियम ज्ञात थे, उनसे वे प्रयोग सिद्ध नही होते थे । मे २ प्राकृत व्याकरणकार प्राकृत की प्रकृति संस्कृत मानकर चले । आगमसूत्रो बहुत सारे देशी भाषा के प्रयोग है, जिनका संस्कृत से कोई संबध नही है | इन धारणाओ से उन्होने उन प्रयोगो को अलाक्षणिक, आर्प या सामयिक कहा । यदि हम काल के अन्तराल पर ध्यान दे तो कुछ नए तथ्य उद्घाटित होगे । निशीथ भाष्य मे आगमसूलो को 'पुराण' कहा गया है । उनका विषय भगवान् महावीर के द्वारा प्रतिपादित है और उनका सकलन गणधरो द्वारा कृत है, इसलिए वे पुराण -- प्राचीन है । उनकी भाषा 'प्राकृत अर्द्धमागधी' है और उसमे अठारह देशी भाषाओ का समिश्रण है । २५ अनेक वैयाकरण आर्ष और देश्य भाषाओ को व्याकरण के नियमो से नियत्रित नही मानते | डॉ० पिशल ने इस विषय पर एक समीक्षात्मक टिप्पणी की हैं "भारतीय वैयाकरण पुराने जैन-सूत्रों की भाषा को आर्षम् अर्थात् 'ऋषियो की भाषा' का नाम देते है । हेमचन्द्र ने १, ३ मे बताया है कि उसके व्याकरण के सव नियम आर्प भाषा मे लागू नही होते, क्योंकि आर्ष-भाषा मे इसके बहुत से अपवाद हैं और वह २, १७४ मे बताता है कि ऊपर लिखे गये नियम और अपवाद आर्ष-भाषा में लागू नही होते, उसमे मनमाने नियम काम मे लाये जाते है त्रिविक्रम अपने व्याकरण मे आर्ष और देश्य भाषाओ को व्याकरण के बाहर ही रखता है, क्योंकि इनकी उत्पत्ति स्वतंत्र है जो जनता मे रूढि वन गई थी (रूढत्वात्) । इसका अर्थ यह है कि आर्ष-भाषा की प्रकृति या मूल संस्कृत नही है और यह बहुधा अपने स्वतंत्र नियमो का पालन करती है (स्वतन्त्रत्वा भूयसा ) । प्रेमचन्द्र तर्कवागीश ने दण्डिन् के काव्यादर्श १, ३३ की टीका करते हुए एक उद्धरण दिया है, जिसमे प्राकृत का दो प्रकारो मे भेद किया गया है । एक प्रकार की प्राकृत वह बताई गई है, जो आर्ष भाषा से निकली है और दूसरी प्राकृत वह है जो आर्ष के समान है आर्षोत्थम् आर्षतुल्यम् च द्विविधम् प्राकृतम् विदु । 'रुद्रट' के काव्यालकार २, १२ पर टीका करते हुए 'नमिसाधु' ने प्राकृत नाम की व्युत्पत्ति यो बताई है कि प्राकृत भाषा की प्रकृति अर्थात् आधारभूत भाषा वह है जो प्राकृतिक है, और जो सब प्राणियो की बोलचाल की भाषा है तथा जिसे व्याकरण आदि के नियम नियन्त्रित नही करते, चूकि वह प्राकृत से पैदा हुई है अथवा प्राकृतजन की बोली है, इसलिए इसे प्राकृत भाषा कहते हैं । अथवा इसका यह भी अर्थ हो सकता है कि प्राकृत प्राक्कृत शब्दो से वनी हो । इसका तात्पर्य हुआ कि वह भाषा जो बहुत पुराने समय से चली आई
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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