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________________ २२८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा प्राकृत मे 'स्रोत' शब्द का सोत्त' रूप बनता है किन्तु आर्ष मे 'पडिसोओ' 'विस्सोअसिआ' रूप भी मिलते है । आप-प्रयोग मे सयुक्त वर्ण के अन्त्य व्यजन से पूर्व 'अकार' होता है तथा 'उकार' भी होता है । आर्ष-प्रयोग मे किरिया' पद का किया' रूप भी मिलता है। १३ आप-प्रयोग मे द्रह शब्द का हरए' रूप मिलता है।" 'कट्टु' यह आर्ष-प्रयोग है ।१५ निपात प्रकरण मे आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि आप प्रकरण मे जो प्रयोग उपलब्ध है, वे सब अविरुद्ध है ।१६ आप-प्रयोगानुसार सप्तमी के स्थान मे तृतीया तथा प्रथमा के स्थान मे द्वितीया विभक्ति भी होती है। आर्ष-प्रयोग मे सस्कृत-सिद्ध रूपो के प्रतिरूप भी मिलते है ।१० गौरसेनी मे 'ण' ननु के अर्थ मे निपात है, किन्तु आप-प्रयोगो मे वह वाक्यालकार मे भी प्रयुक्त होता है ।१८ आगम सूत्रो के व्याख्याकार व्याकरण से सिद्ध न होने वाले आर्ष-प्रयोगो को मलाक्षणिक और सामयिक कहते है। 'वत्यगध-मलकार' (दसवैआलिय २२) इस पद मे 'मलकार' का 'म' अलाक्षणिक है । हरिभद्रसूरी ने लिखा है अनुस्वार अलाक्षणिक है । मुख-सुखोपारण के लिए इसका प्रयोग किया गया है। प्राकृत व्याकरण मे सुखोच्चारण और श्रुतिसुख दोनो को महत्व दिया गया है । प्राकृत व्याकरण मे पकार के लुक का विधान है और पकार को वकार वदिश भी होता है। इन दोनो की प्राप्ति होने पर क्या करना चाहिए, इस जिज्ञासा के उत्तर मे आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है जिससे श्रुतिसुख उत्पन्न हो, वही करना चाहिए । ___दतसोहणमाइस्स' (उत्तर १६।२७)--इस पद मे भी सकार अलाक्षणिक माना जाता है। किन्तु इन सबके पीछे सुखोच्चारण तथा छदोवद्धता का दृष्टिकोण है। 'वत्यगधालकार' तथा 'दतसोहणास्स' इन प्रयोगो मे उच्चारण की मृदुता भी नष्ट होता है और छपीभग भी हो जाता है। हरिभद्र सूरी ने गोचर' शब्द को सामयिक (समय या आगमसिद्ध) बतलाया है। प्राकृत व्याकरण के नियमानुसार गोचार' होना चाहिए था। २३ आगमिक प्रयोगो मे विभक्तिरहित पद भी मिलते है। गिहाहि साहूगुण मुचऽसाहू (दश० ६।३।११) यहा 'गुण' शब्द द्वितीया विभक्ति का बहुवचन है। पर यहाँ इसकी विभक्ति का निर्देश नही है। 'इगालधूमकार' इम पद मे विभक्ति नहीं है। आचार्य मलयगिरि ने इस प्रकार के विभक्ति-लोप का हेतु आप-प्रयोग बतलाया है।"
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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