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________________ १७० संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा कौमुदी तथा खरादि टीकाग्रन्थो का प्रणयन कर इसका काफी विकास किया है। फलस्वरूप इसका अध्ययन जटिल हो गया है और यह साधन न रह कर स्वयं साव्य वन गया । फिर भी इसका पठन पाठन आज व्यापक स्तर पर हो रहा है । पाणिनि का शब्दानुशासन परवर्ती अनेक व्याकरणो का प्रेरणास्रोत रहा है। इन परवर्ती व्याकरणो मे पाणिनि स्पष्ट रूप से प्रतिविम्बित है | व्याकरणो की संख्या आठ मुनी जाती है । इस सम्बन्ध मे निम्नलिखित श्लोक प्रसिद्ध हैं इन्द्रश्चन्द्र काशकृत्स्नापिली शाकटायन 1 पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टी च शाब्दिका ॥ कही कही यह श्लोक इस रूपान्तर मे भी उपलब्ध होता है शाकटायनम् 1 ऐन्द्र चान्द्र काशकृत्स्न कोमार सारस्वत चापिशल शाकल पाणिनीयकम् ॥ इन श्लोको से विदित होता है कि आठ वैयाकरणो ने आठ व्याकरणो की रचना લી । નમે પાિિન ળા શવ્વાનુશાસન સર્વત્રાવીન હૈ ગેસ છ લોનો ા અભિમત है । पाणिनि के पहले ऐमा सर्वाङ्गपूर्ण व्याकरण नही था, ऐसी भी कुछ लोगो की मान्यता है । पहले श्लोक मे "शाब्दिका शब्द आया है | 'शाव्दिक' का अर्थ होता है शब्द-शास्त्र मे प्रौढ प्राप्त करने वाले अथवा शब्द शास्त्र पारगत विद्वान्, अथवा शब्दशास्त्र के प्रचारक | 'शाब्दिक' शब्द का ऐसा अर्थ करने पर उन सभी ने स्वतन्त्ररूप से व्याकरण का निर्माण किया था, यह कथन सर्वथा असदिग्ध नही कहा जा सकता । 33 पातञ्जल महाभाज्य के पस्पशाह्निक मे उल्लेख आता है कि इन्द्र वृहस्पति के पास व्याकरण के अध्ययन के लिये गये । वृहस्पति ने दिव्यवर्षसहस्रपर्यन्त शब्दो का पारायण किया, पर उनका अन्त नही पा सके । इससे सिद्ध होता है कि इन्द्र जो कि प्रथम वैयाकरण के रूप मे अनुश्रुत है, केवल शब्दकोप रूप व्याकरण के प्रणेता हो सकते हैं । धातु प्रकृति प्रत्ययादि का निर्वाचन पुर मर किसी व्याकरण का निर्माण इन्द्र के द्वारा हुआ था, ऐसा निर्भ्रान्त रूप से नही कहा जा सकता । इन्द्र नामक किसी मनुष्य ने ऐन्द्र व्याकरण बनाया था, ऐसा कहना भी युक्ति मगत प्रतीत नही होता | क्योंकि पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी मे शाकल्य, स्फोटायन, शाकटायन प्रभृति जिन आचार्यों का उल्लेख किया है, उनमे इन्द्र का उल्लेख नहीं किया है । इससे मिद्ध होता है कि पाणिनि से पूर्व ऐन्द्र नामक कोई सर्वाङ्ग सम्पन्न व्याकरण नहीं था । जैनेन्द्र महावृत्ति की भूमिका (पृष्ठ ७) मे डा० वासुदेव शरण अग्रवाल ने स्पष्ट किया है कि चान्द्रव्याकरण वौद्ध विद्वान् आचार्य चन्द्रगोमी की रचना है,
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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