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________________ भिक्षुशब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन १७१ जो गुप्त काल मे अस्तित्व मे आयी । इस सम्बन्ध मे राजतरगिणी १।१७१ मे एक श्लोक आता है चन्द्राचार्यादिभिर्लब्ध्वा देश तस्मात्तदागमम् । प्रवर्तित महाभाष्य स्व च व्याकरण कृतम् ।। इस श्लोक से विदित होता है कि चन्द्र प्रभृति जो प्राचीन वैयाकरण थे, उन्होने महाभाष्य का प्रचार किया तथा स्वयं का व्याकरण भी बनाया। इससे सिद्ध होता है कि ये चन्द्राचार्य न केवल पाणिनि के परवर्ती है किन्तु महाभाष्यकार पतञ्जलि से भी परवर्ती हें | इससे यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि पाणिनि से पूर्व चीन्द्र नाम का कोई व्याकरण नही था । ये चन्द्राचार्य तथा बौद्ध विद्वान् चन्द्रगोमी दोनो एक ही है या अलग अलग यह भी ऐतिहासिक अनुसन्धान का विषय है । स्थूल दृष्टि से कहा जा सकता है कि वौद्ध विद्वान् के द्वारा पातञ्जल महाभाष्य का प्रचार सन्देहास्पद होने के कारण ये दोनो चन्द्र पृथक् पृथक् हैं तथा पाणिनि से परवर्ती भी है । युधिष्ठिर मीमासक ने 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास' नामक अपनी पुस्तक में पाणिनि पूर्ववर्ती आपिशलि, काशकृत्स्न और भागुरि आदि अनेक शाब्दिक आचार्यों के सूत्र, धातु और गण के वचन उद्धृत करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि पाणिनि से प्राचीन आचार्यो के भी पाणिनि के समान ही सर्वाङ्गपूर्ण व्याकरण ग्रन्थ थे । अस्तु जो भी हो इन्द्र, शाकटायन, आपिशली और काशकृत्स्न व्याकरण इस समय उपलब्ध नही हैं । आज प्रचलित जो शाकटायन व्याकरण दृष्टि गोचर हो रहा है, वह नवमी शती की रचना है जब कि पाणिनि लगभग पाचवी शती विक्रमपूर्व नन्द राजाओ के समय मे हुए थे । इस शाकटायन व्याकरण मे न केवल सूत्रकार पाणिनि का ही अनुकरण है अपितु वार्तिककार कात्यायन और भाष्यकार पतञ्जलि की भी अनुकृति इसमे स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है । कतिपय उदाहरणो द्वारा इसे स्पष्ट करना आवश्यक है । पाणिनि के वर्णसमाम्नाय मे १४ सूत्र है, किन्तु शाकटायन के अक्षर समाम्नाय मे १३ सूत्र है । महाभाष्य के द्वितीय आह्निक मे वार्तिककार ने "ऋलृक्” सूत्र मे लृकार का प्रत्याख्यान किया है । तदनुसार शाकटायन ने 'ऋलृक् की जगह " इस पर ऋ" सूत्र लिखा है । पाणिनि ने "अइउण्" तथा लण्” इन दो सूत्रो मे दो वार णकार अनुबन्ध लगाया है । इन दो णकारो का उपादान क्यों किया गया "व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति नहि सदेहादलक्षणम्" यह परिभाषा ज्ञापित की गई है । शाकटायन इस विवाद मे नही पडना चाहते । इन्होने "हयवरलन " ऐसा सूत्र बनाकर कार के दो बार आने की समस्या का सदा के लिए निराकरण कर दिया । इससे शाकटायन की पतञ्जलि से परवर्तिता स्पष्ट हो जाती है ।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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