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________________ भिक्षशब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन पं० विश्वनाथ मिश्र व्याकरण रवरूप और परम्परा भाषा भावाभिव्यक्ति का साधन है और विद्या भावाभिव्यक्ति के साथ अमृतोपलब्धि का भी । सस्कृत मात्र भाषा ही नहीं अपितु वह विद्या भी है। व्यापकता, प्राचीनता, सर्वाङ्गीणता तथा ज्ञानगरिमा के कारण सस्कृत विश्व की सर्वातिशाथिनी भाषा है। विश्व मे वही भाषा सक्षम तथा सशक्त समझी जाती है, जिसके पास स्वयं का व्याकरण हो । व्याकरण वह निकषोपल है, जिसके द्वारा भापा का विशुद्ध एव परिमार्जित रूप सामने आता है । शब्द की व्याक्रिया करना ही व्याकरण का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है। धातु और प्रत्ययो की आधारशिला पर शब्दो का निर्माण कर उनके अन्तराल मे निहित स्वारसिक अर्य की अभिव्यक्ति करना किसी भी भाषा के लिये गौरवपूर्ण स्थिति का सूचक होता है। व्याकरण वह निरापद राजमार्ग है, जिसपर अवधिरूप से चलते हुए भाषा की समस्त विधाओ का आलोउन भली भाँति किया जा सकता है। भारत मे व्याकरण के अध्ययन और अध्यापन की परम्परा बहुत पुरानी है। लगभग सहस्राब्दियो से भी अधिक समय से यह परम्पर। अक्षुण्ण रूप से यही चलती आ रही है । सस्कृत व्याकरण ने शब्द के जिस व्यापक, नित्य स्वरूप और इसके अर्थ-प्रकाशन के अपूर्व सामर्थ्य का जो चित्रण किया है, वह अपने मे अनुपम है। વ્યાંગ ની વિવિધતા संस्कृत वाड्मय मे महर्षि पाणिनि का शब्दानुशासन आज सर्वाधिक प्रसिद्धि प्राप्त व्याकरण के रूप में उपलब्ध होता है। इसमे वैदिक और लौकिक उभयविध शब्दो का निर्वचन किया गया है। इसकी अपूर्व विशिष्टता के फलस्वरूप इस पर कात्यायन ने वातिक तथा पतअलि ने महाभाष्य लिख कर इसके गौरव को आगे बढाया। इसके ऊपर वामन जयादित्य दीक्षित, नागेश प्रभृति विद्वानो ने वृत्ति,
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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