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________________ १६८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा था। किन्तु उस महाव्याकरण पर कोई उपयुक्त प्रक्रिया नहीं थी। जो थी वे या तो अधिक विस्तृत थी या अधिक सक्षिप्त थी। मुनि सोहनलालजी (चूरू) ने इस कमी को पूरा करना चाहा। उन्होंने कुछ श्रम किया और तीन हजार श्लोक પરિમાળ વાની પ્રક્યિા ના નિર્માણ કરવાના હસવ નામ વર્તમાન ભાવાર્ય श्री तुलसी के नाम पर 'तुलसीप्रभा' रखा। वि० स० १६६६ फाल्गुन शुक्ला ५ सोमवार को उसकी रचना प्रारभ हुई और स० १६६६ की विजयदशमी को चूरू मे उसकी पूर्ति की गई। उसकी अपनी विशेषता यह रही कि उसमें प्रयुक्त सभी उदाहरण ऐतिहासिक, आगमिक, तात्विक या सधीय परपरा से अनुस्यूत हैं। इसका प्रयोजन यह था कि व्याकरण के अध्ययन के साथ साथ विद्यार्थी को जन इतिहास, आगम, जैन तत्त्व और तेरापथ की परपरा को भी बोध हो जाए। उदाहरण के रूप मे आडावधी आड् प्रत्यय के योग मे पचमी विभक्ति होती है । आइ अव्यय के दो अर्थ हैं मर्यादा और अभिविधि। दोनो के दो उदाहरण इस प्रकार हैं १ मर्यादा आत्रयोदशगुणस्थानात् कर्मवन्ध । २ अभिविधि आसिद्ध संसार ।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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