SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा प्रकरणमात्र है या स्वतन्त्र ग्रन्थ । अस्तु किसी शब्द के अर्थ को बताने के लिए अपने ही किसी अन्य ग्रन्थ से यदि उदाहरण दिए जाते है तो सम्भवत उन ग्रन्थो की भी प्रामाणिकता नापित करना होता है । १३८ गणरत्नमहोदधि' किस व्याकरण के आधार पर बनाया गया इसकी चर्चा 'गणरत्नमहोदधि' के परिचय सन्दर्भ मे की गई है । वृत्ति मे कुछ ऐसे वचन प्राप्त होते हैं, जिनसे यह निश्चित है कि वर्धमान ने किसी व्याकरणविशेष के अनुसार उक्त ग्रन्थ नही बनाया है । ग्रन्थकार ने अनेकन यह स्पष्ट कहा है कि यह गणविशेष मैंने आचार्य के अमुक दिखाया है । यथा मतानुसार १ अरुणदत्त के अभिप्राय से 'अर्धचदि' गण का पाठ "अरुणदत्ताभिप्रायेणते दर्शिता " ( २७८ ) 1 २ भोजदेव के मतानुसार किशुकादि, वृन्दारकादि, मतल्लिकादि, खसूच्यादि' गणो का पाठ "अय च गण श्रीभोजदेवाभिप्रायेण” (२२१०७ ) । "एत गणत्रय श्रीभोजदेवाभिप्रायेण द्रष्टव्यम्” (२।११४) । 'शरदादि' गण का पाठ वृद्धवैयाकरणो के मतानुरोध से किया गया है "ऋक्पूरब्धूपयादित्यनेनैव समासान्तस्य सिद्धत्वादस्य पाठो न संगत प्रतिभाति पर वृद्धवैयाकरणमतानुरोधेन पठित" (२।१३५) 1 चन्द्र तथा दुर्ग को अभीष्ट होने से 'नाम्राडादि' गण पठित है "मय च गणश्चन्द्रदुर्गाभिप्रायेण” (२।१५५) । रत्नमति के अनुसार 'हरितादि' गण के शब्दो का सकलन किया गया है શ્વન્દ્રાચાર્યેળ ચબબોવંદુવ્રુત્ત્તિયામિત્યન્ન સૂત્તેપ્રત્યમાત્ર ત્યેવ વાઘા દત્તા इत्युदाहृतम् । रत्नमतिना तु हरितादयो गणसमाप्ति यावदिति व्याख्यातम् । तन्मतानुसारिणा मयाऽप्येते किल निवद्धा " ( ३।२३८ ) | इस प्रकार विविध आचार्यों के मतानुसार कुछ गणो या गणशब्दो का पाठ किए जाने से यह सिद्ध हो जाता है कि वर्धमान ने किसी व्याकरण ग्रन्थ की रचना नही की थी तथा न उसके अनुसार गणपाठ का विवेचन ही प्रस्तुत किया था । यदि उन्होंने स्वरचित व्याकरण के खिलपाठ के रूप मे गणो का प्रवचन किया होता तो उतने ही गणो पर विचार होना चाहिए था । जितने गणो का निर्देश शब्दानुशासन मे किया गया होता । उस स्थिति मे यह कहना सम्भव न होता कि ऋक्पूरब्धूपयात्" भूत्र से ही समासान्त प्रत्यय की सिद्धि हो जाने पर भी 'शरदादि' गण का पाठ वृद्धवैयाकरणो के मतानुरोध से किया गया है (२।१३५) । उपरिदर्शित प्रकरण के अनुसार ग्रन्थकार ने अनेक प्रामाणिक आचार्यों के मतो का संग्रह किया है । इसके अतिरिक्त क्वचित किन्ही मतो को अनुचित बताकर स्वाभिमत भी दिखाया है, जिससे ग्रन्थकार की समीक्षापरक वुद्धि का परिचय 4
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy