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________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १३७ के अनन्तर ही उस वृत्ति की रचना की होगी-ऐसा सामान्यतया कहा जा सकता है। ___शब्दो के प्रयोगस्थलो तथा मतविशेषो को दिखाते हुए वृत्तिकार ने ५० से भी अधिक ग्रन्थकार तथा २५ से भी अधिक ग्रन्यो का नामोल्लेख किया है। जिनमे निर्वाणनारायण, वल्लभ, श्रीवसुक, छित्तप, परिमल, अरुणदत्त, भलूट तथा अजितदेव जैसे अप्रसिद्ध ग्रन्थकार भी उल्लिखित हुए है। इसी प्रकार अमरमाला, वृहत्तन्त्र, शाश्वतकोश, अजय तया मानवी वृत्ति जैसे कुछ अप्रसिद्ध ग्रन्थ भी उद्धृत किए गए है। वर्धमान ने कुछ उदाहरण स्वरचित काव्यग्नन्थ सिहराज वर्णन से भी दिए है, जिनका निर्देश उन्होने पाँच स्थानो मे इस प्रकार किया है १ प्रादु प्राकाश्य । यथा ममैव नि सीमाश्चर्यधाम त्रिभुवन विदित पत्तन यत् त्वदीयम्, तन्मध्ये वृद्धिमीयुः फलभरनमिता शाखिन५चूतमुख्या । તંતપિત્ત વિવિજ્ઞાન્ વિહિતવૃતયુ ત્વ...માવાત્ સતીશ ! प्रादु पन्ति प्रभूता यदि सुरतरवश्चितमेतद् बुधानाम् ।। (२।६७)। २ यथा वा ममैव દૂરાવપિ રિપુનો મનીષિત થન્નતિ સામા ! अविमिवेतरभूभृन्निरुद्धगतयोऽपि कूलिन्य ।।(२।१४६) । ३ यथा ममैव सिद्धराजवर्णने प्रत्युप्तमुक्ताफलपमग जगत्काकिलोहितीकम् ।। (३।१६२) । ४ यथा ममैव सिद्धराजवर्णने जति यस्य प्रयाणे जातसध्या भिशका ॥(१३३४) । ५ यथा ममैव नवे योनिकोद्भेदे मनीषिण ॥(७।४०६)। एक उदाहरण स्वरचित क्रियागुप्तक से भी दिया गया है १ यथा ममैव क्रियागुप्तके उद्यत्तीवानगनाराचविद्धा स्वप्राणेभ्यो वल्लभ वामदृष्ट्वा । वेगादेषा चक्रवाकी वराकी तीसत्तीरे प्रातरेव प्रयाति ।। (२।१५५)। परन्तु इस एक उदाहरण से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि 'क्रियागुप्तक' नामक कोई
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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