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________________ समित जैन इतिपस। खण्डोंके बने हुबे होनेके कारण इन्हें नाशवान मी मानना पड़ेगा। पर अनुभव ऐसा नहीं है। चेतन कभी मरता नहीं देखा गया और न उसका ज्ञान टुकडोंने कटा हुमा अनेकरूप अनुभवमें भाया । इसलिये वह अमन्मा है । संसारमें वह अनादिसे मजीवके संसर्गमें पड़ा हुमा संसरण कर रहा है । जीव-मजीवका यह सनातन प्रवाह मनन्तका इतिहास है । उसका प्रत्यक्ष अनुभव पूर्ण ज्ञानी बननेपर होता है। जैन सिद्धान्त ग्रंथोंमें उसका रूपरा और उपाय वर्णित है । जिज्ञासुगण उनसे भरनी मनस्तुष्टि कर सकते हैं। किन्तु धर्म नववा वस्तुस्वरूपके इस सनातन प्रवाहमें उसका वर्तमान इतिहास जान लेना उपादेय है । वर्तमानमें उसका निलपण कैसे हुमा ? उसकी समवृद्धि कैसे हुई ? किन किन लोगोंने उसे कैसे अपनाया ? उसके यथार्थ रूपये धब्बे कैसे कगे? और उनसे उसके कोनर से विकृत-रूप हुये ? उन विकृत रूपोंके कारण मुल धर्मका कसा हास हुमा ? इत्यादि प्रश्न हैं जिनका उत्तर पाये बिना मनुष्य अपने जीवनको सफल बनाने में सिद्ध-मनोग्य नहीं हो सकता । इसीलिये मनुष्य के लिये इतिहाम-श खो ज्ञानकी आवसका। वह मनुष्य के नैतिक उत्थान और पतनका प्रतिबिम्ब है। धर्म और मधर्म, पुष और पापके मंचका चित्रपट है। उसका बाझरूप राज्यों के उत्कर्ष और अपकर्ष, योद्धाओंकी जय और पराजबका द्योतक है; परन्तु यह सब कुछ पुण्य पापका खेल हो। इसलिये इतिहास बह विज्ञान है जो मनुष्य जीवनको सफल बनानेके लिये नैतिक शिक्षा खुली पुस्तककी तग प्रदान करता है। यह
SR No.010475
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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