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________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः। संक्षिप्त जैन इतिहास। भाग तीसरा-खण्ड पहला। (अर्थात् दक्षिण भारतके जैनधर्मका इतिहास) प्राक्कथन। जैनधर्म तात्विकरूपमें एक अनादि प्रवाह है, वह सत्य है, एक विज्ञान है। उसका प्राकृत इतिहास वस्तुस्वरूप है। वस्तु सादि नहीं अनादि है, कृत्रिम नहीं मकृत्रिम है, नाशवान नहीं चिरस्थायी है, कूटस्थ नित्य नहीं पर्यायोंका घटनाचक्र है। इस. लिये विश्वके निर्मारक पदार्थोका इतिहास ही जैनधर्मका इतिहास है। और विश्व निमांक पदार्थ तत्ववेत्ताओंने जीव और अजीव बताये हैं । चंतन पदार्थ यदि न हो तो विश्व अंधकारमय होनाय । उसे जाने और समझे कौन ? और यदि अचंतन पदार्थ न हो तो इस संसारमें जीव रहे किसके आश्रय ? प्रत्यक्ष हमें विश्व और उसके अस्तित्व का ज्ञान है। वह है और अपने अस्तित्वमे जीव और अजीवकी स्थिति सिद्ध कर रहा है । परन्तु यह जीव और अजीव भाये कहांसे ? यदि इन्हें किसी नियत समबपर किसी व्यक्ति-विशेष द्वारा बना हुमा कहा जाय तो यह भखण्ड और मरुत्रिम या मनादि नहीं रहते।
SR No.010475
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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