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________________ भगवान महावीरका निर्वाणकाल। [२५७. माना जाता था। सामान्यतः उस समयके धर्मका यह विशालरूप है। इस प्रकार उस समयके भारतकी परिस्थिति थी और वह आजसे कहीं ज्यादा सुघर और मच्छी थी। प्रत्येक प्राणी स्वाधीन और पराक्रमी था । रूढ़ियों की गुलामी, धार्मिकताका अंधविश्वास अथवा रुपये पसेकी चारी उस समय लोगों में छू नहीं गई थी। सब प्रसन्न और मानन्दमई जीवन बिताते थे। इनका उल्लेख ही उम. समय नहीं मिलता है। हां, एक बात का बहुत उल्लेख मिलता है। वह यह कि वैराग्य होनेपर मुमुक्षु पुरुषोंको न राज्यका लालच, न स्त्री पुत्रों का मोह और न धन-संपदाका लोभ साधु होनेसे रोक सक्ता था। यह तो एक नियम था कि अंतिम जीवन में प्रायः सब ही विचारवान गृहस्थ माधु होकर आत्मज्ञान और जनकल्याण के कार्य करते थे। किंतु ऐसे भो उदाहरण मिलते हैं जिनमें वैराग्यको पाकर व्यक्ति भरी जवानी में मुनि होगए थे।* भगवान महावीरकादकोणाकाल। भगवान महावीरजीके निर्वाणकी दिव्य घटनाको आजसे करीब निर्वाण-कालकी ढाई हजार वर्ष पहले अर्थात ईस्वी सन् ९२७. असम्बद्धता। वर्ष पहले घटित हमा माना जाता है। जेनों में मानकल निर्वाणाव्द इसी गणनाके अनुसार प्रचलित है। किन्तु उसकी गणनामें अन्तर है। जिसकी ओर मि० काशीप्रसाद जायसंवाल, प्रो० कोबी और पं० विहारीलालजी जैनों ध्यान * प्र० पृ. २३१ । १-अविओसो, भा० १.४० ९९ ॥ २-धीर पर्व । ३-वृजेश पृ०.८॥ - - -
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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