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________________ AAAAAAAAAAAA-RA १५६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । अन तपस्वीको जैनधर्मका उपदेश देकर जैनी बनाया था। इसी तरह उन्होंने एक अन्य गरीब शूद्र वर्णके मनुष्यको ननधर्मका -अधानी बनाकर उसे अपने आभूषण आदि दिये थे।' ___गृहस्थ धर्मका पालन करने का अधिकार प्रत्येक प्राणीको था। श्रावक लोग नवदीक्षित जैनी के साथ प्रेममई व्यवहार करके वात्स. त्यधर्मकी पूर्ति करते थे। उसके साथ जातीय व्यवहार स्थापित करते थे। जिनदत्त सेठने बौद्धधर्मी समुद्रदत्त सेठके जन होनानेपर उसके साथ अपनी कन्या नीली का विवाह किया था। खानपानमें शुद्धिका ध्यान रखा जाता था; किन्तु यह बात न थी कि किसी इतर वर्णी पुरुषले यहाँके शुद्ध भोजनको ग्रहण कानेसे किसीका धर्म चला जाता हो ! राजा उपश्रेणिकने भील कन्यासे शुद्ध भोजन बनवाकर ग्रहण किया था। (आइ० भा० २ ४० ३३ ) जैन मंदिरोंका द्वार प्रत्येक मनुष्यके लिये खुला रहता था। चम्पाके बुद्धदास और बुद्धसिंह जैन मंदिरके दर्शन करने गये थे और अंत में वह जैनी होगये थे। पशु तक भगवानका पूजन कर सक्त थे । कुमारी कन्याको पत्नीवत ग्रहण करके उसके साथ रहनेवाले पुरुषके यहां मुनिराजने आहार लिया था। आजकल ऐसे व्यक्तियोंको “दस्सा' कहकर धर्मागधन करनेसे रोक दिया जाता है। किंतु उस समय 'दस्सा' शब्दका नामतक नहीं सुनाई पड़ता था। किसी भी व्यक्तिके धर्मकार्यों में बाधा डालना उस समय अधर्मका कार्य समझा जाता था। और न उस समय अग्नि पूना, तर्पण आदिको धर्मका अंग १-क्षत्रचूडामणि लम्ब ६ श्लो० ७-९ व लम्ब ७० २३-३० । २-आक० भा० २ पू०२८।३-सको० पृ० १०५। ४-उपु० पृ. ६४२ । -
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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