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________________ श्री वीर संघ और अन्य गना। [१५५ थीं, पृथ्वीपर मोती थीं और सूर्यास्त होने के पश्च तू भोगनपान नहीं करती थीं। इस ताक्षका आर्यिका धर्म उस जमानेका था। भगवान महावीरजीके समयका श्रावकाचार उन्नत और विशाल था। उसमें पाखण्ड और मिथ्यात्वको तत्कालीन श्रावकाचार। स्थान प्राप्त नहीं था। श्रावक और श्राविका नियमित रूपसे देवपूजल, गुरु उपासना और दान कर्म किया करते थे। वे नियमसे मद्य मांमादिका त्याग करके मूल गुणोंको धारण करते थे। व्रत और उपवासोंमें दत्तचित्त रहते थे। अष्टमी और चतुर्दशीको मुनिवत् नग्न होकर प्रतिमायोग. धारण करके स्मशान आदि एकांत स्थानमें आत्मध्यानका अम्यास किया करते थे। किंतु त्यागी होते हुये भी भारंभी हिंसासे विलग नहीं रहते थे। वे कृषि कार्य भी करते थे। तथापि बड़े चतुर और ज्ञानवान होते थे । अनेकोंसे शास्त्रार्थ करनेके लिये तैयार रहते थे। आजकलके श्रावकोंकी तरह धर्मके विषयमें परमुखापेक्षी नहीं रहते थे। उस समय मुद्रा व दुपट्टा रखकर श्रावक लोग शास्त्रार्थ करनेका माम चलेंज देते थे। कापित्यके कुन्दकोलिय जनने मुद्रा और दुपट्टा रखकर शास्त्रार्थ किया था। जैन स्तूपों मांदिकी खुदाई होनेपर ऐसी मुद्रायें निकली हैं। श्राविकायें भी इन शास्त्रार्थोंमें भाग लेती थीं। इस क्रिया द्वारा धर्मका बहुप्रचार होती था और श्रावकों की संख्या बढ़ती थी। जीवंधरकुमारने एक १-भमबु० पृ० २५८-२६० । २-जैप्र० पृ० २३४ । ३-अनं० पृ० २३२ १ ४-ममबु० पृ. २०६-२०७। ५ ० ० २३४ । - ६-वसू० व्या० ६। ७-दिजे० भा० २१ अंक १-२ पृ. ४० ।। मम० पृ० १५॥ - -
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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