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________________ से विरुद्ध सम्मति के हों व भविनयी हों उन पर मामय भाव रखना अर्थात् उनसे न प्रेम रखना न उनसे द्वेष करना । ओ अपने चारित्र में उन्नति करते हुए त्याग मार्ग की ओर मुगना चाहते हैं उन गृहस्थों के लिये ग्यारह प्रतिमाएं या श्रेणियां बताई गई हैंउन श्रेणियों के नाम ये हैं-(१) दर्शन (२) व्रत (३) सामायिक (१) प्रोष घोपवास (५) सचित्त त्याग (६) रात्रि मुक्ति त्याग (७) ब्रह्मचर्य (८) प्रारम्भ त्याग (९) परिप्रह त्याग (१०) अनुमति त्याग (११) उदिष्ट त्याग। इनका संक्षेप स्वरूप स्वामी समंत भद्राचार्य ने रत्नकरड श्रावका चार में इस तरह बताया है पहली श्रेली-दर्शन प्रतिमा सम्यग्दर्शन शुद्धः संसार शरीर भोग निर्विराणः। पंच गुरुचरण शरणादर्श निकस्तत्त्वपथगृह्यः॥१३७ भावार्य इस दरजे वाले गृहस्थ की श्रद्धा जैनमत के तत्वों पर निश्चय और व्यवहार धर्म पर पकी व शुद्ध होनी चाहिये, ऐसे गृहस्व का मन संसार को दुःख रूप, शरीर को अपवित्र व नाशवंत तथा भोगों को नाशवन्त व अतृप्तिकारी समझ कर इनसे वैराग्य रूप हो वह परहंत, सिख, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच परम गुरु के चरणों का सेवक हो सथा तत्व के मार्ग को गृहण करने वाला हो अर्थात् मद्य, मांस आदि तीन मकार का त्यागी हो और पांच अणुव्रत का पालने वाला हो ऐसे आठ मूल गुण को पालता हो
SR No.010469
Book TitleSanatan Jain Mat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherPremchand Jain Delhi
Publication Year1927
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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