SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की एक मर्यादा बाँधले कि इतनी सम्पति होने पर मैं सन्तोच रक्तूंगा और तत्र परोपकार में संतोष पूर्वक जीवन विताऊँगा। जो गृहस्थ आत्मा के सच्चे सुख को भोगते हुये सांसारिक जीवन विता कर हर एक प्रकार की उचित राज्यनैतिक, व्यापारिक, सामाजिक भादि लौकिक उन्नति करना चाहते हैं उनके लिये ऊपर लिखा हुआ मामूली गृहस्थ का व्यवहार धर्म है जो बड़ी सुगमता से पाला जा सकता है। जिनको आत्म ध्यान की रुचि हो जावेगी वे ही सच्चे जैनी हैं। ऐसे ही जैनो जैसा अवकाश होता है उसके अनुसार देवपूजा, गुरु भक्ति, सामायिक ब शासन पठन करते हैं और नीति से चलने के लिये अहिंसादि पांच अणुव्रत का पाचरण करते हैं। ऐसे गृहस्थ राजा या प्रजा दोनों अन्याय से बिलकुल बचेंगे; दूसरों को जीवित रखते हुए, दूसरों का दुःखी न करते हुए अपना जीवन विताएंगे। अहिंसा और सत्य उनका मूल मन्त्र होगा। वे जगत मात्र के जीवों का हित चाहेंगे व यथाशक्ति भलाई करेंगे। एक जैनी के लिये आशा है कि वह नीचे लिखी चार भावनाएं करता रहे"मैत्री प्रमोद कारुण्यं माध्यस्थानि च । सत्त्व गणाधिक क्लिश्यमाना विनयेषु॥११७ ता० सू० . भावार्थ-सर्व प्राणी मात्र के साथ मित्रता रखना अर्थात् सब का भला चाहना, गुणों में जो अधिक हों उनको देखकर प्रमोद या हर्ष भाव करना, दुःखी जीवों पर क्या भाव रखना, क्या जो अपने
SR No.010469
Book TitleSanatan Jain Mat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherPremchand Jain Delhi
Publication Year1927
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy