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________________ ( २० ) स्वसंवेदनसुव्यक्त स्तनु मात्रो निरत्ययः। अत्यंत सौख्यवानात्मा लोका लोक विलोकनः ॥२१॥ भावार्थ:-यह आत्मा यद्यपि निश्चय से इस जगत के बराबर फैलने वाला है तथापि प्रत्येक शरीर में शरीर प्रमाण आकार में व्यापक है, नाश रहित है, लोक व अलोक को देखने वाला है तथा अत्यन्त सुखी है तथा जो मन की वृत्ति को रोककर अपने में ही विश्राम करता है उसे स्वानुभव के द्वारा भले प्रकार प्रगट होता है। श्री अमृतचन्द्र आचार्य समयसार कलश में कहते हैंआत्म स्वभावं परभाव भिन्न , मापूर्णमादात् बिमुक्त मैकं । घिलीन संकल्प विकल्प जालं , प्रकाशयन् शुद्ध नयोऽभ्युदेति ॥ १० ॥ भावार्थ-आत्मा का स्वभाव परभाव अर्थात् सर्व प्रात्मा से व सर्व अनात्म प्रव्य से व श्रीपधिक रागद्वेषादि भावों से जुदा है. अपने ज्ञान दर्शन सुख वीर्य आदि शुद्ध गुणों से परिपूर्ण है, आदि व अन्त रहित हैं, एक है, संकल्प विकल्प के जालों से शून्य है ऐसा निश्चयनय बताता है।
SR No.010469
Book TitleSanatan Jain Mat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherPremchand Jain Delhi
Publication Year1927
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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