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________________ ( २१ ) यह आत्मा सदा बने रहने की अपेक्षा नित्य है । समय समय समुद्र तरंगों की तरह परिणाम पलटने की अपेक्षा भनित्य है। अपने स्वरूप की अपेक्षा अस्ति रूप या भाव रूप है परके स्वरूप की अपेक्षा नास्तिरूप या अभावरूप है । अत्यन्त गुण व पर्याओं का समुदाय होने से एक रूप है तथा एक एक गुण व पर्याय आत्मा के सर्वाश में व्यापक है इससे बात्मा अपने रूप है जैसे शान गुण की अपेक्षा ज्ञान रूप, सुख गुण को अपेक्षा सुख रूप, वीतरागता की अपेक्षा वीतराग रूप । मिन मिन्न दृष्टि विंदुओं से अनेक स्वभावों को वस्तु में बताने वाला होने से जैनमत को अनेकान्त मत कहते हैं। भनेक धर्मों के साधने के लिये ही स्याद्वाद सिद्धान्त है-स्यात् = किसी अपेक्षा से, वाद = कहना-जैसे स्यात् एकः = समूह की अपेक्षा एक है, स्यात् अनेकः = अनेक प्रथक् प्रथक गुण व स्वभावों की अपेक्षा अनेक रूप है। इसी स्यावाद को बताने के लिए श्री उमास्वामी महाराज ने तत्वार्थ सूत्र में यह सूत्र दिया है। अर्पितानर्पितासिद्धः ॥३२॥५॥ अर्थात् जिस स्वभाव को बताना हो उसको अर्पित या मुस्त्य करलो दूसरों को अनर्पित या गौणकर दो क्योंकि एक साथ कई स्वभावों का वर्णन हो नहीं सकता है। बचन में यह शक्ति नहीं है निश्चय नय से आत्मा परम पवित्र झाता दृष्टा अमूर्तीक, परम शांत व परमसुखी है व हर एक के शरीर में व्यापक है ऐसा समझना चाहिये यह शक्ति रूप परमात्मा
SR No.010469
Book TitleSanatan Jain Mat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherPremchand Jain Delhi
Publication Year1927
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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