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________________ है कि जड़ या चेतन जितने भी पदार्थ इस जगत में हैं वे सब मूल में अमर और अविनाशी हैं। . . . . निश्चय नय से इस प्रात्मा का स्वभाव स्वामी कुदकुंदाचार्य जी ने समय सार में इस मांति कहा है : अह मिक्को खलु सुद्धो, दसण णाणमइओ सयारुवी। णवि अस्थिमज्झ किंचिव, अण्णंपरमाणु मित्तं वि ॥४३॥ भावार्थ-शानी को ऐसा अनुभव करना चाहिए कि मैं आत्मा सदा एक सबसे निराला हूँ: शुद्ध वीतराग हूँ, दर्शन झानमयी हूँ, व अमूर्तीक हूँ-अन्य परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है-यह प्रोत्मा अन्य पांच अजीव द्रव्यों से जुदा है-जैनमत कहता है कि यह जगत छः द्रव्यों का समुदाय है । ये छः द्रव्यसत् अविनाशी हैं, व अकृत्रिम हैं। इसी लिये इन छः द्रव्यों का समुदाय यह जगत भी सत् अविनाशी और प्रकृत्रिम है। आत्मा के सिवाय. पात्मा से भिन्न लक्षणधारी पुगल धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल हैं जिसमें स्पर्श, रैस, गंध, वर्ण पाया जावे ऐसे परमाणु या स्कंध सब पुद्गल हैं। जिनमें मिलने व विछड़ने की शक्ति होती है उनको ही पुद्गल कहते हैं-जीव और पुद्गल हलन चलन करते हैं, ठहरते हैं, अबकाश पाते हैं तथा अवस्था बदलते हैं। इनचारों कामों में सहकारी
SR No.010469
Book TitleSanatan Jain Mat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherPremchand Jain Delhi
Publication Year1927
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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