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________________ विश्व-धर्म ६५ का भेद तो किसी ने भी उपस्थित नही किया । वास्तव में भेद की बात दूसरी ही है । प्रस्तुत प्रश्न के मूल मे विवाद इस बात का है कि एक वर्ग कहता है-'धर्म का रूप ही बदल कर अनुकूलता के अनुसार बनाया जाय', तब दूसरा वर्ग कहता है कि 'धर्म नहीं बदल सकता । मनुष्य स्वयं बदले और धर्म के अनुरूप बने।' अब समझना यह है कि कौन बदले, धर्म या धर्मी? जिस प्रकार प्राकृतिक वस्तुएँ नही पलटती । यदि उन्हे पलटाया जाता है, तो वे उतनी लाभकारी नहीं रहती, उसी प्रकार धर्म की स्वाभाविक शोधन-शक्ति भी अपने स्वाभाविक रूप मे ही कायम रहती है। उसमे परिवर्तन होने पर वह शक्ति नहीं रहती। जिस प्रकार सरोवर का निर्मल और शीतल पानी, मनुष्य की प्यास मिटाकर तृप्ति देती है, गन्दला-मिट्टी, कचरा और मूत्रादि मिला हुआ पानी हितकारी नही होता, न नशीली वस्तु मिलाकर भंग और मदिरा बना देने से वह लाभ होता है, उसी प्रकार धर्म को इच्छानुसार बनाने पर वह प्रात्मशोधकबन्धच्छेदक धर्म नही रहकर,बन्धन कारक बन जाता है। उसका मूल स्वभाव कायम नही रहता । जबतक उसमे संवर का तत्त्व कायम रहता है, तभी तक वह आत्म-रक्षक रहता है। जहां सवर तत्त्व निकला कि फिर धर्म रहा ही कहां? सवर का अस्तित्व रखकर कोई भी व्यक्ति, किसी भी जाति, कुल, वर्ग और किसी भी देश का निवासी जैनधर्मी हो सकता है। इसमें
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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