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________________ सम्यक्त्व विमर्श रहेगा। अतएव धर्म को सर्व व्यापक बनाने के लिए उसके स्वरूप को नही बदला जा सकता। जिस प्रकार ससार मे विभिन्न जाति की वस्तुएँ हैं और प्रत्येक जाति मे भी कई भेद प्रभेद हैं। धान्य मे कोदो भी है और ज्वार, मक्का तथा गेहूँ भी । घोडे की जाति मे २५) ३०) रुपये का टटु भी है और सवा लाख का रेस का घोडा भी। रल भी विविध प्रकार और मूल्य के होते हैं। बहुमूल्य वस्तु परिमाण में थोडी होती है और कही कही मिलती है। उसका क्षेत्र सीमित रहता है। वह सर्वव्यापक नही हो सकती।इसी प्रकार धर्म के विषय में भी समझना चाहिए । जिस प्रकार चादी, सोना और हीरो का मूल्य, जन-मत के आधार पर बढाया घटाया नहीं जा सकता। उनका मूल्य अपने आप की योग्यता से है, उसी प्रकार धर्म का स्वरूप भी अपनी विशेषता के कारण है। धर्म की अपनी तारकता, विशुद्धता, मात्मा को परमात्मा बनाने की रीति व विधि-विधान ही उसकी उपयोगिता बतलाते हैं। यदि ये वस्तुएँ, उसमें से निकल जाय और वह मिट्टी और धूल की तरह सर्व सुलभ बन जाय, तो उसका स्थान ही वैसा हो जायगा । फिर वह माथे से उतर कर परो के नीचे आ जायगा। प्रश्न-जो धर्म, मनुष्य मात्र के लिए उपयोगी नही होता, वह धर्म ही कैसा ? जैनधर्म एक जाति, एक देश और एक रूप मे बँधा रहे, तो वह विश्व-धर्म कैसे हो सकता है ? उत्तर-जैनधर्म तो मनुष्य मात्र के लिए उपयोगी है, चाहिए उसका पाराधक । धर्माराधना में जाति, वर्ग और देश
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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