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________________ सम्यक्त्व महिमा २८९ से श्रद्धान करता है तो भी उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है (यही बात आचाराग श्रु० १ अ० ५ उ० ५ मे लिखी है)॥१॥ भगवान् जिनेश्वर के कहे हुए सभी वचन सत्य हैं, वे कभी भी असत्य नही होते-ऐसी निश्चल बुद्धि जिसमे है, उसकी सम्यक्त्व दृढ होती है । ॥२॥ जिसने अन्तर्मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्व का स्पर्श कर लिया, उसे कुछ न्यून अर्द्धपुद्गल परावर्तन से अधिक संसार परिभ्रमण नही होता । इतने काल में वह मोक्ष पा ही लेता है। ॥३॥ 'सम्यक्त्वकौमुदी' में सम्यक्त्व की महिमा बताते हुए लिखा कि सम्यक्त्वरत्नान्तपरं हि रत्नं, सम्यक्त्व मित्रान्न परं हि मित्रम् । सम्यक्त्व बंधोन परो हि बंधुः, सम्यक्त्वलाभान्न परो हि लाभः ॥ -संसार में ऐसा कोई रत्न नही जो सम्यक्त्व रत्न से बढकर मल्यवान हो । सम्यक्त्व मित्र से बढकर, कोई मित्र नही हो सकता, न बंधु ही हो सकता और सम्यक्त्व लाभ से बढकर संसार में अन्य कोई लाभ हो ही नही सकता । श्लाघ्यं हि चरणज्ञान-वियुक्तमपि दर्शनम् । न पुननिचारित्रे, मिथ्यात्वविषदूषिते ॥ ज्ञान और चारित्र से रहित होने पर भी सम्यगदर्शन प्रशंसा के योग्य है, किंतु मिथ्यात्व विष से दूषित होने पर ज्ञान
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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