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________________ २८८ सम्यक्त्व विमर्श जे या बुद्धा महाभागा, वीरा असमत्तदंसिणो। असुद्धं तेसि परक्कंतं, सफलं होइ सव्वसो ॥२२॥ जे य बुद्धा महाभागा, वीरा सम्मत्तदंसिणो । सुद्धं तेसि परक्कंतं, अफलं होइ सव्वसो ॥२३॥ --जो व्यक्ति महान् भाग्यशाली और जगत् मे प्रशसनीय है, जिसकी वीरता की धाक जमी हुई है, किंतु वह धर्म के रहस्य को नही जानता है और सम्यग्दृष्टि से रहित है, तो उसका किया हुआ सभी पराक्रम-दान, तप आदि अशुद्ध है-कर्म-बंध का ही कारण है । और जो बुद्धिशाली भाग्यवान् सम्यग्दर्शन से युक्त है, उसके व्रतादि सब शुद्ध है । सम्यक्त्व का गुणगान करते हुए 'नवतत्त्व प्रकरण' मे लिखा है किजीवाइनवपयत्थे, जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं । भावेण सद्दहंतो, अयाणमाणेवि सम्मत्तं ॥ २६ ॥ सव्वाइ जिणेसरभासिआइं, क्यणाई नन्नहा हुंति । इअ बुद्धि जस्स मणे, सम्मत्तं निच्चलं तस्स ॥२७॥ अंतो मुत्तमित्तंपि, फासियं हुज्ज जेहि समत्तं । तेसिं अवड्पुग्गल, परियट्टो चेव संसारो ॥ २८ ॥ -जो जीवादि नव पदार्थों को जानता है, उसे सम्यक्त्व होता है। यदि क्षयोपशम की मन्दता से कोई यथार्थ रूप से नहीं जानता, तो भी "भगवान् का कथन सत्य है"-इस प्रकार भाव
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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