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________________ २७६ सम्यक्त्व विमर्श वह यह सोचले कि-'जैनधर्म ऐसा ही मानता है, तो यह उसकी भूल होते हुए भी मिथ्यात्व नही है। यदि वह प्रसग प्राप्त होने पर भी भूल नही सुधारे और उसे जान-बूझकर आग्रहपूर्वक पकड़े रहे, तो वह मिथ्यात्वी हो जाता है । इस पर से यह समझना चाहिए कि आत्मा का परिपूर्ण ज्ञान नही होते हुए भी सर्वज्ञ के कथन पर श्रद्धा रखनेवाला सम्यग्दृष्टि है, और वह ज्ञानावरणीय कर्म को नष्ट करके सर्वज्ञ. सर्वदर्शी बन सकता है । यह ध्यान रखना चाहिए कि जबतक छद्मस्थता है, तबतक सभी सम्यगदष्टियो का, सभी विषयो मे, एक मन्तव्य नहीं होता। कई बाते ऐसी है जो 'केवलीगम्य' होती है । आगमो मे भी जिनका खुलासा नही मिलता-ऐसे विषयो मे अनचाहे भी गलत धारणा हो सकती है । यह बात १२ वे गुणस्थान तक, मन और वचन के आठो योग होने की मान्यता से भी सिद्ध हो रही है । इस पर से यह समझना सहज है कि ऊपर के गुणस्थानवाला भी कुछ बाते असत्य सोच सकता है, बोल सकता है, किंतु भावो की प्रशस्तता एवं सम्यक्त्व गुण की प्रकृष्टता से वह मिथ्यात्व के पाप से वञ्चित रह जाता है । ( कितु जो जानबूझ कर शास्त्रो की अवहेलना करता है, वह तो मिथ्यात्वी है।) यह तो हुई सम्यक्त्व की बात । अब मिथ्यात्वी के विषय मे विचार किया जाता है । यो तो मिथ्यात्व का विष, आत्मगुणो का घातक, आत्मोत्थान का मारक और अनन्त-संसार वर्द्धक है। किंतु कुछ ऐसे जीव
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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