SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मदर्शन और सम्यग्दर्शन २७७ भी हो सकते हैं. जो मिथ्यात्व के विष को कम करते हुए प्रात्मा की मलिन-पर्यायें नष्ट करते रहते हैं । इससे यथाप्रवृत्तिकरण में प्राकर, अपूर्वकरण करके सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते हैं । कई आत्माएँ ऐसी भी होती हैं जो जीवनभर मिथ्यात्व मे रही, मिथ्या साधना करती रही, किंतु जीवन के अंतिम सिरे पर पहुंचकर, एक साथ सम्यक्त्व, विरति एव अप्रमत्तता प्राप्त कर,क्षपकश्रेणी पर चढगई और केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर मुक्त हो गई। भगवती सूत्र श ६ उ ३१ मे उन 'असोच्चाकेवली' का वर्णन है, जो जीवनभर मिथ्यात्वी रहे, सम्यगधर्म से वचित रहे और जो साधना करते रहे, वह भी अज्ञानपूर्ण । किंतु उनमे एक गुण ठीक था। उनकी कषाय मन्द-प्रशात थी । वे हठाग्रह से दूर थे। कषायो के उपशात रहने से और अकामनिर्जरा बढ़ने से उन्हे विभगज्ञान प्राप्त हो गया। उस विभगज्ञान के द्वारा जब उन्होने प्रार्हत् धर्म का परिचय पाया, तो उनकी प्रात्मा स्वय सत्यासत्य को समझ गई । उन्होने उसी समय असत्य का त्याग कर सत्य स्वीकार कर लिया । अब उनका मिथ्यात्व, मिथ्या-चारित्र और अज्ञान-कष्ट, सब नष्ट होकर साधना सम्यग्रूप में परिणत हो गई । वे अप्रमत-संयत बन गये और तत्काल श्रेणी का प्रारोहण कर सिद्ध बन गए। सोचना चाहिए कि जो व्यक्ति अन्तर्मुहर्त पहले मिथ्यात्वी था, वह एकदम सम्यक्त्वी , अप्रमत्त एव बढते बढते सिद्ध कैसे होगया ? उसने मिथ्यात्व अवस्था मे ही-अनजान मे ही मिथ्यात्व क्षय करने का यत्न किया था। वह यह नही समझता
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy