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________________ आत्मदर्शन और सम्यग्दर्शन २७५ कि.-"मैं आत्मा हूँ। मेरी कर्मबद्ध दशा ही से जन्म-मरणादि है और विरति-सवर का साधन मुझे परमात्म पद पर प्रतिष्ठित कर देगा।" इतना विश्वास होने पर वह मिथ्यादृष्टि नही माना जाता। एक बात यह भी है कि सम्यग्दष्टि जीवो की विचारणा मे भी भेद हो सकता है। जैसे-उदकपेढालपुत्र और गणधर भगवान् गौतम स्वामीजी म० (सूय. २-७) गागेय अनगार और भगवान् महावीर प्रभु (भगवती ६-३२)। उद्कपेढालपुत्र प्रनगार की प्रत्याख्यान के विषय मे शंका थी और गागेय अनगार, भगवान महावीर देव को अरिहत कोटि मे-देवपद मे, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी नही मानते थे। फिर भी वे मिथ्यात्वी नही थे, क्योकि उनकी निर्ग्रन्थ-धर्म, सम्यक्त्व, विरति, त्याग, प्रत्याख्यान एव देव-तत्त्व मे श्रद्धा थी। किसी भी तत्त्व के प्रति उनका अविश्वास नही था। एक को केवल प्रत्याख्यान के शब्दो के विषय मे सन्देह था और दूसरे को भगवान महावीर की व्यक्तिगत पूर्णता मे सन्देह था । इस सन्देह को वे निवारण करना चाहते थे। उनकी आत्मा मे दुराग्रह नही था। समझाने पर वे समझ गए और अपना पक्ष भी छोड दिया। प्राचाराग 'सूत्र प ५ उ. ५ मे लिखा है कि-सम्यग्दृष्टि जीव, ज्ञानावरणीय के उदय से किसी असम्यक् वस्तु को भी सहज-भाव से सम्यक मानले, तो भी वह उसके श्रद्धाबल के कारण सम्यक-रूप से परिणमती है । तात्पर्य यह कि जिनधर्म-मोक्षमार्ग मे दढ प्रास्था रखनेवाले व्यक्ति मे कभी कोई अन्यथा धारणा हो जाय और
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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