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________________ २७४ सम्यक्त्व विमर्श थी, तब अशात भी बहुत रहती थी, किंतु अब अशाति मे बहुत कमी आगई और शाति तथा स्थिरता में वृद्धि होगई। इससे अशुभ कर्म-बन्धन की मात्रा और रस मे भी बहुत कमी आगई। - इसके बाद वह प्रवजित होगया । अब उसकी प्रात्मा अधिक स्थिर होगई । उसकी प्रवृत्ति का-अविरति का पक्ष तो हट गया और प्रमाद की अनादि से चली आई आदत है, वह भी छूटती जा रही है। जब सारा प्रमाद हट जाता है, तो आत्मा मे अधिकाधिक निर्मलता, स्थिरता और शाति पाती जाती है। अंत मे अयोगी अवस्था प्राप्त कर वह अपने आप मे ही लीन, स्थिर, परम शात और परमानन्दी हो जाता है। वह व्यक्ति,पहले यह नही जानता था कि मेरा आत्मा कैसा है, उसका स्वभाव कैसा है, वह कितने गुणो का धारक है और उसका साक्षात्कार होता है या नही । वह इतना भर जानता था कि मैं कर्मबद्ध आत्मा हूँ और विरति के साधन से शुद्ध होकर मुक्त-परमात्मा हो सकता हूँ। इसी विचार से उसने विरति का मार्ग अपनाया और आगे बढ़ते-बढते सिद्ध होगया । अतएव आत्मदर्शन के बिना विरति प्रादि को व्यर्थ कहना मिथ्या है। प्रश्न-यात्मा के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ व्यक्ति तो मिथ्यादृष्टि होता है, तो क्या आप मिथ्यादष्टि की भी मुक्ति मानते हैं ? उत्तर-पहले बताया जा चुका है कि संक्षेप-रुचि वाला व्यक्ति, आत्म-स्वरूप से अनभिज्ञ होते हुए भी यह जानता है
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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