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________________ आगमों में श्रात्म-लक्षी विधान जिनागमो मे सम्यग्दृष्टि की उन्ही क्रियाओ को विरति, चारित्राचारित्र, चारित्र और निर्जरा मे मानी है, जो आत्महित की दृष्टि से युक्त हो । जहा आत्म-लक्ष छूटा, वहा वही क्रिया बन्ध मे मानी गई है, फिर भले ही वह दैविक सुखो को प्रदान करनेवाली हो । यदि प्रात्मदृष्टि प्राप्त नही हुई या होकर निकल गई, तो उन दैविक सुखो की समाप्ति के बाद,कालात र मे दुर्गति का कारण भी बन सकती है। इसलिए आत्मदृष्टि-आत्मा की मुक्ति के लिए, प्रात्मा के साथ लगे हुए जड सयोग से पृथक्, पूर्ण विशुद्ध दशा की प्राप्ति के लिये ही त्याग प्रत्याख्यान और तपादि करना चाहिए। ध्येय-लक्षी प्रवृत्ति ही निश्चय व्यवहार उभय सम्मत होती है। जिनागमो मे स्थान स्थान पर ऐसे विधान किये हैं। उन विधानो मे से कुछ यहा उपस्थित किये जाते है। (१) आगमकार, मनुष्य के ससार त्याग कर प्रवजित होने का कारण निम्न शब्दो मे उपस्थित करते हैं । "अत्तत्ताए परिव्वए"-प्रात्मत्त्व प्राप्ति (मुक्ति) के लिए प्रव्रजित हो। (सुय. १-३-३-७ तथा १-११-३२) “अत्तत्ताए संवुडस्स"-अात्मत्त्व के लिये सयमी बने । (सूय. २-२) (२) पाच महाव्रत और रात्रि-भोजन त्याग की प्रतिज्ञा लेते हुए निग्रंथ, अपना उद्देश्य निम्न शब्दो मे व्यक्त कर रहा है। ___"इच्चेयाइं पंचमहत्वयाइं राइभोयणवेरमण___ छवाइं अत्तहियट्ठयाए उवसंपज्जिता णं विहरामि ।" (दशवै ४)
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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