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________________ सजातीय विजातीय के निमित्त से या निसर्गरुचि से यह ज्ञान हो गया कि पाश्रव के चालू रहते हुए मैं कभी हलका और सुखी नही हो सकता। निरास्रव दशा ही पूर्ण एवं शाश्वत सुख देने वाली है, किंतु यह निरास्रव अवस्था, विचार करने या मन के मनोरथ मात्र से प्राप्त नही हो सकती। इसके लिए उचित प्रयत्न तो करना ही पडेगा । तब वह जिनेश्वर भगवंतो के बताये हुए पापासव त्याग रूप शुद्ध व्यवहार के द्वारा उन छिद्रो को बन्द कर देता है कि जिनसे अशुभ-कर्मों की आवक होती रहती है । सरागदशा के कारण, प्रशस्तराग के चलते, शुभ-कर्मों की आवक उसे होती रहती है, परन्तु यह तो उसकी विवशता है । क्योकि वह बिना अवलम्बन के वर्तमान अवस्था मे स्वावलम्बी नही हो सकता । इसीलिए वह प्रशस्त राग के द्वारा वीतराग भगवन्तो, गुरुदेवो और धर्म का अवलंबन, रस्सी की तरह ग्रहण करता है। जिस प्रकार कुएँ से बाहर निकलने वाले के हाथ मे रस्सी पकडी हुई होती है, परन्तु दृष्टि ऊपर किनारे की ओर होती है, वह किनारे की ओर देखता हुआ अपने हाथो और पाँवों से रस्सी के सहारे ऊपर चढता रहता है। इसी प्रकार देवादि पर का अवलम्बन लेते हुए भी उसकी दृष्टि तो पूर्ण स्वावलम्बन की ही है । वह अपने आपमे एकान्त स्थिर रहना (सिद्ध दशा) ही चाहता है । इस प्रकार के साधक का व्यवहार, शुद्ध व्यवहार है । अव्यवहारी बनाने वाला है । जिसका ध्येय आत्महित का नही है, वह शुद्ध व्यवहारी भी नहीं है। ऐसा जीव, अव्यवहारी नही हो सकता।
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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