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________________ आगमों में आत्म-लक्षी विधान २५६ (३) “एगंतदीट्ठी य अमाइरूवे"-एकान्तदृष्टि -प्रात्मदृष्टि (आत्मशुद्धि-कर्मनाशक दृष्टि) से युक्त होकर माया से रहित हो। (सुय. १-१३-६) (४) "जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ"जो एक आत्मा को जानता है, वह सभी जानता है । (प्राचा १-३-४) (५) “एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं, जहा जुण्णाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थइ।" -भगवान् उपदेश करते हुए फरमाते हैं कि-श्रात्मा को अकेला जानकर शरीर को धुनक डालो । शरीर को कृष्ण करो, जीर्ण करो। जिस प्रकार पुरानी लकडी को अग्नि जला डालती है, उसी प्रकार मुनि कर्मो को भस्म कर देता है। (६)-"एवं अत्तसमाहिए अणिहे।" -प्रात्म समाधि वाला मुनि रागद्वेष रहित होता है। (प्राचा. १-४-३) (७) धर्मोपदेश करने वाले साधु को सावधान करते हुए भगवान् फरमाते हैं कि-हे साधु तू धर्म का उपदेश करे, तो "अणुवीइ भिवखू धम्ममाइक्खमाणे णो अत्ताणं आसाइज्जा, णो परं आसाइज्जा, णो अण्णाइं पाणाई भयाइं जीवाइं सत्ताइं आसाइज्जा"...... -धर्मोपदेश करते हुए अपनी आत्मा की आशातना
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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