SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्व विमर्श मे परिणमन) से रहित वे ही जीव हैं, जो कर्म से रहित-अकर्मी __ हो चुके हैं, पूर्णता को प्राप्त कर चुके है, कृतकृत्य हो चुके है। जो सकर्मी हैं, जिनकी आत्मा पर कर्म का कचरा जमा हुआ है, वे उस अवस्था के चलते अव्यवहारी नही हो सकते । जहा कर्मों से प्रात्मा का सबध है, वहा व्यवहार है ही। व्यवहार की समाप्ति का उचित एव अनुकूल मार्ग है-अशुभ का त्याग और शुभ-व्यवहार का अवलम्बन । शुभ-क्रिया के अवलम्बन के मूल मे अव्यवहारीपन का ध्येय तो रहना ही चाहिए । तभी यह अव्यवहारी, स्वयभू दशा को प्राप्त कर सकता है। जिनागमो मे भव्यात्माओ के उद्धार के लिए ऐसे ही मार्ग का प्रतिपादन किया गया है, जो साव्यवहारी से अव्यवहारी बनानेवाला है । जब सवेग सम्पन्न प्रात्मा, निग्रंथ प्रव्रज्या स्वीफार करती है. तब वह प्रतिज्ञा करती है कि 'इच्चेयाइं पंचमहन्वयाइं राइभोयणवेरमणछट्ठाई 'अत्तहियट्ठाए' उवसंपज्जित्ताणं विहरामि ।" (दशव० ४) मर्थात् ये पांच महाव्रत और छठा रात्रि भोजन त्याग प्रत मैं "आत्महितार्थ" ग्रहण करता हूँ। तात्पर्य यह कि ससाय त्याग कर प्रवजित होने का एक मात्र ध्येय, आत्महित-प्रात्मशुद्धि, आत्मशाति एव प्रात्म-स्थिरता है । इस दशा के प्राप्त होने पर जीव, अव्यवहारी हो जाता है। जीव, समस्त पापाश्रवो के द्वारा प्राते हुए कर्मों के मार से भारी होकर संसार-समुद्र के तल मे पड़ा है। उसे सद्गुरु
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy