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________________ पहले से चौथा कव? २३५ अर्थ-प्राप्ति या भौतिक सुखो मे लीन रहना है, तथा धर्म का सबंध केवल मन वाले सज्ञी-जीवो से ही है, असंज्ञी जीव तो सभी ऐसे हैं कि जिनका किसी भी धर्म से कोई संबंध ही नही है। इस प्रकार के असंज्ञी, और धर्म-निरपेक्ष सज्ञी जीवो को 'कुश्रद्धा' रूप मिथ्यात्व नही लगता, फिर भी वे सम्यग्दृष्टि नही है। क्योकि उनमे वास्तविक तत्त्व-श्रद्धा का अभाव है। उनमे कुश्रद्धा नहीं, परन्तु अश्रद्धा है । तत्त्व की रुचि नही और जबतक तत्त्व-श्रद्धा नही होजाय, तबतक जीव मिथ्यादृष्टि ही रहता है । तात्पर्य यह कि मिथ्यात्व निवृत्ति के लिए तत्त्वश्रद्धान होना परमावश्यक है । इसीलिए उत्तराध्ययन २८ मे 'कुदर्शन-वर्जन' रूप आचार के पूर्व ही ‘परमार्थ-संस्तव' और 'सुदृष्ट परमार्थ सेवन' रूप प्राचार का होना है। तत्त्वार्थ सूत्र भी “तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्" कहता है । तात्पर्य यह कि कुश्रद्धा त्याग ही पर्याप्त नही, किन्तु तत्त्वार्थश्रद्धा होने पर ही मिथ्यात्व छूटता है और सम्यग्दृष्टि बनता है। मिथ्यात्व त्याग के लिए तत्त्वार्थ श्रद्धा आवश्यक है। पहले से चौथा कब ? 'सम्यग् दर्शन' ही सिद्धि का प्रथम सोपान है, धर्म की मूल-भूमिका है। इसके बिना प्राणी अनाराधक रहता है, फिर भले ही वह प्रशान्त कषायी और शुक्ल-लेश्या यक्त क्यों न हो । प्रथम गुणस्थान में पाचो महाव्रतो का कठोरता से पालन भी होता है, उग्र तपस्या भी होती है। इतना होते हुए
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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