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________________ २३६ सम्यक्त्व विमर्श भी वह आराधक नही माना जाता, उसका गुणस्थान पहला ही होता है। इसका मुख्य कारण यही है कि उस क्रिया के साथ धर्म का अाधारभूत सम्यग्दर्शन नही है । वह सारी साधना, बिना नीव के हवाई-महल के समान है। गुब्बारा (फुग्गा) वही तक आकाश मे ऊँचा उडता रहता है, जबतक कि उसकी हवा नही निकले । जबतक उग्र आचार से प्राप्त शुभ-कर्म रूपी हवा की शक्ति है, तबतक वह प्राणी दैविक सुख पाता रहता है, और जहा यह शक्ति खत्म हुई, तो ऐसा नीचे गिरता है कि फिर उसके लिए दुख-परम्परा ही मुख्य रह जाती है। सम्यक्त्व के अभाव मे उसकी साधना, आराधना की सीमा मे नही प्रा सकती। सत्रह पापों के सद्भाव में भी चौथे गुणस्थान मे अठारह पाप मे से एक मिथ्यात्व जाता है, शेष १७ पाप-स्थान रहते है। फिर भी वह आराधना की जघन्य सीमा मे तो आ ही जाता है। एक ओर १७ पापस्थान रहते हुए भी आराधक, और दूसरी ओर चारित्राचार का कठोरता से पालन करते हुए भी अनाराधक । पहले के लिए चौथा गुणस्थान, तब दूसरे के लिए पहला ही । इसका मुख्य कारण ही सम्यक्त्व की महिमा है, यथार्थ श्रद्धा का महत्व है । जिसकी दृष्टि सुधर गई, उसका आचरण भी कभी सुधरता है । चारित्र-मोहनीय कर्म के उदय से यदि वह इस भव मे, चारित्र प्राप्त नही कर सकता, तो प्रगले मनुष्य-भव मे चारित्र प्राप्त कर लेगा। यदि अगले मनुष्य
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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