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________________ सम्यक्त्व विमर्श गुरु का स्वरूप, अगार तथा अनगार धर्म और निर्वाण-मार्ग को जान सकते हैं और यथाशक्य आचरण करके उन्नत हो सकते सम्यग्दृष्टि मनुष्यो के लिए सम्यक्-श्रुत ही मति-श्रुत ज्ञान मे वृद्धि तथा अवधि, मन पर्यव और केवलज्ञान का मार्ग प्रशस्त करता है । सम्यक् श्रुत के अवलबन से आत्मा अशुभ परिणति से बचकर प्रशस्त भावो मे विचरण करता है। यह श्रुतावलम्बन ही प्रात्मावलम्बन का कारण है । इससे परावल. म्बन छूटकर आत्मावलम्बन बढता है । तत्त्वार्थ श्रद्धा कुदेवादि को मानना अथवा 'जीव को अजीव' प्रादि खोटी मान्यता रखना ही मिथ्यात्व है-ऐसी बात नही है । यह विवेचन तो उन जीवो की अपेक्षा से है, जो किसी अन्य देवादि के मानने वाले हो । ससार मे अनेक प्रकार के मत चल रहे हैं, जो अपने पक्ष को धर्म के नाम से चलाते हैं । उनमे से बहुत से पुण्य, पाप, स्वर्ग, नर्क आदि मानते है। कुछ 'मोक्ष' को भी मानते हैं, भले ही उनकी मान्यता विपरीत हो, परन्तु वे भी अपने मत को 'धर्म' ही कहते है । इस प्रकार के अन्यमतो को ही असम्यग्-दृष्टि कहने से विवेचन अधूरा ही रहता है। शेष ऐसे जीव भी रह जाते है जो किसी भी धर्म या पंथ को नही मानते । कुछ तो धर्म मात्र से घृणा करके धर्म-निरपेक्ष हो गये हैं और कई ऐसे हैं कि जिनके जीवन का लक्ष ही
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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