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________________ अनाभोगिक मिथ्यात्व १८३ डालर खर्च करके भी उनके समकक्ष नही पहुँच सका, और आगे भी नही पहुँच सकेगा। भौतिक-विज्ञान का प्रत्यक्ष-ज्ञान भी पूर्ण रूप से जिनेश्वरो मे ही था। उनके अनन्तवे भाग का ज्ञान रखने वाले को आधारभूत मानकर, उससे जिनेश्वरो के वचनों की परीक्षा करने की उल्टी बातो पर विश्वास करने वाले,सचमुच दर्शन-मोहनीय कर्म के पंजे मे पड़े हुए हैं। बुद्धिमान् पाठक, आत्मोत्थान में अनुपयोगी ऐसे भौतिक विज्ञान की क्षुद्रता पर विचार कर, इस मिथ्यात्व की जाल से बचे और अपनी आत्मा को साशयिक मिथ्यात्व के दलदल से बचावे, तथा निग्रंथ-प्रवचन पर पूर्ण श्रद्धा रखे, यही निवेदन है । १५ अनाभोगिक मिथ्यात्व अज्ञान के गाढ अन्धकार मे पडे हुए जीवो को यह मिथ्यात्व लगता है । जिन जीवो को किसी भी प्रकार के मत का पक्ष नही होता, और जो धर्म-अधर्म का विचार ही नही कस सकते, वे अनाभोगिक मिथ्यात्वी है। पहले बताये हुए अन्य मिथ्यात्व तो मिथ्या विचार रखने वाले दर्शनो के पक्ष मे पडने या उनकी ओर ललचाने से लगते हैं किंतु यह मिथ्यात्व तो किसी भी पक्ष से निरपेक्ष रहने पर लगता है। एकेन्द्रिय से लगाकर प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव, इसी मिथ्यात्व के अन्तर्गत है। जिन जीवो के मन ही नही, वे सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के विषय मे सोच ही नही सकते । अपने जीवन संबंधी बनी बनाई ओघ-दृष्टि के सिवाय उनमे मत-पक्ष की बात ही
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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