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________________ १८२ सम्यक्त्व विमर्श www शंकाशील बनाकर मिथ्यात्व में धकेल दिया है । कोई कोई प्रसिद्ध विद्वान तो स्पष्ट लिख चुके हैं कि - " आजकल के वैज्ञानिक तथ्यो के आधार से आगमो मे संशोधन करना चाहिए, " - इस प्रकार लौकिक ज्ञान को आधारभूत मानकर, लोकोत्तर धर्म मे परिवर्तन करने की मिथ्या बाते प्रचलित कर के साशयिक - मिथ्यात्व का खूब विस्तार किया गया है । यह सभी जानते हैं कि भौतिक विज्ञान भी अभी अपूर्ण ही है और सदाकाल छद्मस्थो के लिए प्रपूर्ण ही रहने का । साधना के चलते एक मनुष्य मे जो शक्ति विकसित हो सकती है, और उससे बिना किसी खर्चे के वह जो भौतिक शक्ति प्राप्त कर सकता है, उसका शताश भी इन भौतिक विज्ञानियों मे नही है । जिनागमो मे बताया है कि साधना के बल पर प्राप्त की हुई वैक्रिय शक्ति से मनुष्य, अपने लाखो करोडो रूप बना सकता है । अपनी ही आत्मशक्ति से करोड़ो मनुष्यो की सशस्त्र सेना बना सकता है और अपनी क्रुद्ध दृष्टि मात्र से हजारो लाखो का संहार भी कर सकता है । वैक्रिय - लब्धि वाला मनुष्य, देव के समान शक्ति रखता है । लब्धि - सपन्न मुनि, जब प्रमादवश होता है, तब विना किसी वाहन के ( जघाचरण विद्याचरण ) थोड़ी ही देर मे लाखो माइल दूर जा सकता है | मन्त्रवादी साधु, थाली को आकाश मे चढाकर (नकली चाँद दिखाकर ) अमावश्या की पूर्णिमा बता सकता है, और आहारक-लब्धि वाला साधु, अपने शरीर मे से ही छोटा-सा मानव बनाकर मुहूर्त मात्र मे लाखो माइल दूर भेजकर वापस बुला सकता है। तब आज का भौतिक विज्ञान, श्ररबों G
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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