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________________ १८४ सम्यक्त्व विमर्श नही होती। उनमे किसी प्रकार का वाद ही नही होता। कई सज्ञी पंचेन्द्रिय जीव भी ऐसे होते हैं, जिनकी धार्मिक मत-मतान्तरो के विषय मे सोचने और पक्ष-विपक्ष को अपनाने की रुचि ही नही होती। उनके सोचने विचारने के विषय, अपनी अजीविका-धन्धा रोजगार या भोगोपभोग सबधी होते है । इसके सिवाय विभिन्न धार्मिक दर्शनो-मतो सम्बन्धी विचार करने की योग्यता ही उनमे नही होती अर्थात् उनकी विचार-शक्ति अत्यंत मंद होती है। जिस प्रकार विवेकहीन व्यक्ति, अपना हिताहित नही सोच सकता, उसी प्रकार अनाभोग-मिथ्यात्वी भी आत्महित के विषय मे अच्छा बुरा कुछ भी नही सोच सकता। अनाभिग्रहिक, पाभिनिवेशिक और साशयिक मिथ्यात्व उन्ही जीवो मे होता है-जो अभव्य नही हो । क्योकि अनाग्रहवृत्ति जैमी उज्ज्वलता, अभव्य मे आना सभव नही लगता, और अभिनिवेश का सम्बन्ध तो उसी से होना संभव है, जो सम्यगदृष्टि रहा हो और बाद मे किसी विषय मे मिथ्यापक्ष पकडकर आग्रही बन गया हो। तथा साशयिक-मिथ्यात्व भी उसे ही लगना संभव है, जिसे पहले श्रद्धा हो चुकी हो और बाद मे संशय हुआ हो। अभव्य को प्राभिग्रहिक और अनाभोगिक मिथ्यात्व ही हो सकता है और भव्य को सभी । असंज्ञी अवस्था मे केवल अनाभोग-मिथ्यात्व लगना संभव है। यद्यपि भव्य मे सभी प्रकार के मिथ्यात्व लगना संभव है, तथापि एक समय में किसी
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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