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________________ जीव को अजीव मानना १२६ भी जीव अनन्त है और इनके भेद भी अनेक है। कई चार प्राण वाले और कई छ से लेकर दस प्राण वाले है । जीव अरूपी है, वह दिखाई नही देता। दिखाई देनेवाला केवल शरीर है, जो प्रचित भी हो जाता है । जीव के अरूपी होने से ही नास्तिक लोग, उसका अस्तित्व नही मानते और 'पाँच भूतो के मिलने से बनी हुई शक्ति विशेष' ही मानकर, आत्म तत्त्व का निषेध करते है। इन भूतवादियो के मत से पाप, पुण्य, स्वर्ग, नरक और मोक्ष कुछ भी नही है। वे परलोक नही मानते । उनका सिद्धात है कि "खूब खाओ, खूब पीयो, खब ऐश-आराम करो। यदि अपने पास पैसा नही हो, तो कर्ज करके भी खायो, क्योकि जीवन का सार ही खाना-पीना और मौज करना है । मरने के वाद यह शरीर नष्ट होकर मिट्टी में मिल जानेवाला है। फिर पुण्य और पाप का फल भोगने वाला कोई नही रहता।" इस प्रकार जीव के अस्तित्व से इन्कार करनेवाला मत भी है और वर्तमान समय मे कई धर्म-निरपेक्ष लोग, स्वर्ग नरकादि की मान्यता पर विश्वास नही करने वाले, आत्मा के अस्तित्व के विषय मे भी अश्रद्धा रखते हैं । इनमे कुछ पठित जैनी नाम धराने वाले भी है। इसका मूल कारण दर्शन-मोहनीय कर्म का उदय है। जिसके इस कर्म का क्षयोपशम होता है, वह तो अरूपी * साधारण वनस्पतिकाय में चार प्राण भी पूरे नहीं होते। उनका जीवन इतना अल्प होता है कि कोई श्वास लेता है, तो नि.श्वास नहीं ले पाता और कोई नि श्वास लेता है, तो उच्छ्वास नहीं ले पाता और उसके पूर्व ही मर जाता है। इस प्रकार उनके चार प्राण भी पूरे नहीं हो पाते।
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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